था, मैं ऐसा गया-बीता है, कि मेरे पास चालीस रुपये नहीं! वह मित्र जरा देर में मुझे बुलाने आया। मेरी आँखें लाल थीं। समझ गया। तुरन्त जाकर 'फीस जमा कर दी। तुमने कहाँ पाये ये बीस रुपये?'
'यह न बताऊँगी!'
नैना ने भाग जाना चाहा। बारह बरस की यह लज्जाशील बालिका एक साथ ही सरल भी थी और चतुर भी। उसे ठगना सहज था। उससे अपनी चिताओं को छिपाना कठिन था।
अमर ने लपक कर उसका हाथ पकड़ लिया और बोला——जब तक बताओगी नहीं मैं जाने न दूंगा। किसी से कहूँगा नहीं; सच कहता हूँ।
नैना झेंपती हुई बोली——दादा से लिये।
अमरकान्त ने बेदिली से कहा——तुमने उनसे नाहक मांगे नैना। जब उन्होंने मुझे इतनी निर्दयता से दुत्कार दिया, तो मैं नहीं चाहता कि उनसे एक पैसा भी मांगूँ। मैंने तो समझा था, तुम्हारे पास कहीं पड़े होंगे; अगर मैं जानता कि तुम भी दादा से ही माँगोगी, तो साफ़ कह देता मुझे रुपये की जरूरत नहीं। दादा क्या बोले ?
नैना सजल नेत्र होकर बोली——बोले तो नहीं। यही कहते रहे कि करना-धरना तो कुछ नहीं, रोज रुपये चाहिए; कभी फ़ीस, कभी किताब, कभी चंदा। फिर मुनीमजी से कहा बीस रुपये दे दो। बीस रुपये फिर देना।
अमर ने उत्तेजित होकर कहा——तुम रुपये लौटा देना, मुझे नहीं चाहिए।
नैना सिसक-सिसककर रोने लगी। अमरकान्त ने रूपये जमीन पर फेंक दिये थे और वह सारी कोठरी में बिखरे पड़े थे। दो में एक चुनने का नाम न लेता था। सहसा लाला समरकान्त आकर द्वार पर खड़े हो गये। नैना की सिसकियाँ बन्द हो गई और अमरकान्त तलवार की चोट खाने के लिये अपने मन को तैयार करने लगा। लालाजी दोहरे बदन के दीर्घकाय मनुष्य थे। सिर से पांव तक सेठ——वही खल्वाट मस्तक, वही फूले कपोल, वही निकली हुई तोंद। मुख पर संयम का तेज था जिसमें स्वार्थ की गहरी झलक मिली हुई थी। कठोर स्वर में बोले——चरखा चल रहा है ? इतनी देर में कितना सूत काता ? होगा दो-चार रुपये का ?
अमरकान्त ने गर्व से कहा——चरखा रुपये के लिए नहीं चलाया जाता।