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लिये फिरे। तुम्हें भगवान् ने सब कुछ दिया है। कुछ घर का काम देखो, कुछ बाहर का काम देखो। चार दिन की ज़िन्दगी है, इसे हँस-खेलकर काट देना चाहिए। मारे-मारे फिरने से क्या फ़ायदा।

अमर इस तरह बैठा रहा, मानो कोई पागल बक रहा है। आज तुम यह चिकनी-चुपड़ी बातें करके मुझे फँसाना चाहते हो ? मेरी ज़िन्दगी तुम्ही ने खराब की। तुम्हारे ही कारण मेरी यह दशा हुई। तुमने मुझे कभी अपने घर को घर न समझने दिया-- तुम मुझे चक्की का बैल बनाना चाहते हो। वह अपने बाप का अदब उतना न करता था, जितना दबता था, फिर भी उसकी कई बार बीच में टोकने की इच्छा हई। ज्यों ही लालाजी चुप हुए, उसने धृष्टता के साथ कहा--दादा, आपके घर में मेरा इतना जीवन नष्ट हो गया, अब मैं उसे और नष्ट नहीं करना चाहता। आदमी का जीवन केवल जीने और मर जाने के लिए नहीं होता, न धन-संचय उसका उद्देश्य है। जिस दशा में मैं हूँ, वह मेरे लिए असहनीय हो गयी है। मैं एक नये जीवन का सूत्रपात करने जा रहा हूँ, जहाँ मजदूरी लज्जा की वस्तु नहीं, जहाँ स्त्री पति को केवल नीचे नहीं घसीटती, उसे पतन की ओर नहीं ले जाती; बल्कि उसके जीवन में आनन्द और प्रकाश का संचार करती है। मैं रूढ़ियों और मर्यादाओं का दास बनकर नहीं रहना चाहता। आपके घर में मुझे नित्य बाधाओं का सामना करना पड़ेगा और उसी संघर्ष में मेरा जीवन समाप्त हो जायगा। आप ठण्डे दिल से कह सकते हैं, आपके घर में सकीना के लिए स्थान है ?

लालाजी ने भीत नेत्रों में देखकर पूछा--किस रूप में ?

'मेरी पत्नी के रूप में।'

'नहीं एक बार नहीं और सौ बार नहीं !'

'तो फिर मेरे लिए भी आपके घर में स्थान नहीं है।'

'और तो तुम्हें कुछ नहीं कहना है ?'

'जी नहीं।'

लालाजी कुरसी से उठकर द्वार की ओर बढ़े। फिर पलटकर बोले---बता सकते हो, कहाँ जा रहे हो?

'अभी तो कुछ ठीक नहीं है।'

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कर्मभूमि