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उत्तर की पर्वत श्रेणियों के बीच एक छोटा-सा रमणीक पहाड़ी गाँव है। सामने गंगा किसी बालिका की भाँति हँसती-उछलती, नाचती-गाती, दौड़ती चली जाती है। पीछे ऊँचा पहाड़ किसी वृद्ध योगी की भाँति जटा बढ़ाये, श्याम गंभीर, विचार-मग्न खड़ा है। यह गाँव मानो उसकी बाल-स्मृति है, आमोद-विनोद से रंजित, या कोई युवावस्था का सुनहरा, मधुर स्वप्न। अब भी उन स्मृतियों को हृदय में सुलगाये हुए, उस स्वप्न को छाती से चिपकाये हुए है।

उस गाँव में मुश्किल से बीस-पच्चीस झोपड़े होंगे। पत्थर के रोड़ों को तले ऊपर रखकर दीवारें बना ली गई हैं। उन पर छप्पर डाल दिया गया है। द्वारों पर बनकट की टट्टियाँ हैं। उन्हीं काबुकों में उस गाँव की जनता अपने गाय-बैलों, भेड़-बकरियों को लिये अनन्तकाल से विश्राम करती चली आती है।

एक दिन संध्या समय एक साँवला सा, दुबला-पतला युवक, मोटा कुरता, ऊँची धोती और चमरौधे जूते पहने, कन्धे पर लुटिया-डोर रखे, बग़ल में एक पोटली दबाये इस गाँव में आया और एक बुढ़िया से पूछा--ज्यों माता, यहाँ एक परदेशी को रात भर का ठिकाना मिल जायगा?

बुढ़िया सिर पर एक लकड़ी का गट्ठा रखे, एक बूढ़ी गाय को हार की ओर से हाँकती चली आती थी। युवक को सिर से पाँव तक देखा, पसीने में तर सिर और मुँह पर गर्द जमी हुई, आँखें भूखी, मानो जीवन में कोई आश्रय ढूँढ़ता फिरता हो। दयार्द्र होकर बोली--यहाँ तो सब रैदास रहते हैं भैया !

अमरकान्त इसी भाँति महीनों से देहातों का चक्कर लगाता चला आ रहा है। लगभग पचास छोटे-बड़े गाँवों को वह देख चुका है, कितने ही

कर्मभूमि
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