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'बस जाओ। मैं दस-पाँच दिन में फिर आऊँगा और देखूँगा कि किन लड़कों ने झूठा वादा किया था, किसने सच्चा।

लड़के चले गये, तो अमर लेटा। तीन महीने से लगातार घूमते-घूमते उसका जी ऊब उठा था। कुछ विश्राम करने का जी चाहता था। क्यों न वह इसी गाँव में टिक जाय ? यहाँ उसे कौन जानता है। यहाँ उसका छोटा सा घर बन गया। सकीना उस घर में आ गयी, गाय बैल और अन्त में नींद भी आ गयी।


अमरकान्त सबेरे उठा, मुँह-हाथ धोकर गंगा-स्नान किया और चौधरी से मिलने चला। चौधरी का नाम गूदड़ था। इस गांव में कोई जमींदार न रहता था। गूदड़ का द्वार ही चौपाल का काम देता था। अमर ने देखा, नीम के पेड़ के नीचे एक तख्त पड़ा हुआ है, दो तीन पुआल के गद्दे। गूदड़ की उम्र साठ के लगभग थी; मगर अभी टाँठा था। उसके सामने उसका बड़ा लड़का पयाग बैठा जूता सी रहा था। दूसरा लड़का काशी बैलों को सानी-पानी कर रहा था। मुन्नी गोबर निकाल रही थी। तेजा और दुरजन दोनों दौड़ दौड़ कुएँ से पानी ला रहे थे। ज़रा पूरब की ओर हट कर दो औरतें बरतन माँज रही थीं। यह दोनों गूदड़ की बहुएँ थीं।

अमर ने चौधरी को राम-राम किया और एक पुआल की गद्दी पर बैठ गया। चौधरी ने पितृभाव से उसका स्वागत किया--मज़े में खाट पर बैठो भैया! मुन्नी ने रात ही कहा था। अभी आज तो नहीं जा रहे हो? दो-चार दिन रहो, फिर चले जाना। मुन्नी तो कहती थी, तूमको कोई काम मिल जाय तो यहीं टिक जाओगे।

अमर ने सकुचाते हुए कहा--हाँ, कुछ विचार तो ऐसा मन में आया था। गूदड़ ने नारियल से धुआं निकाल कर कहा--काम की कौन कमी है। घास भी कर लो, तो रुपये रोज़ की मज़ूरी हो जाय। नहीं जूते का काम है। तल्लियां बनाओ, चरसे बनाओ, मेहनत करनेवाला आदमी भूखों नहीं मरता। धेली की मजूरी कहीं नहीं गयी।

यह देखकर कि अमर को इन दोनों में कोई तजवीज़ पसन्द नहीं आई;

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कर्मभूमि