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बच्चे तक काम में लगे रहें और भर पेट भोजन न मिले और एक-एक अफ़सर को दस-दस हजार की तलब मिले। दस तोड़े रुपये हुए। गधे से भी न उठें।

अमर ने मुसकरा कर कहा--तुम तो दादा नास्तिक हो।

चौधरी ने दीनता से कहा--बेटा, चाहे, नास्तिक कहो, चाहे मूरख कहो; पर दिल पर चोट लगती है, तो मुँह से आह निकलती ही है। तुम तो पढ़े-लिखे हो जी?

'हाँ, कुछ पढ़ा तो है।'

'अंग्रेज़ी तो न पढ़ी होगी?'

'नहीं, कुछ अँग्रेजी भी पढ़ी है।'

चौधरी प्रसन्न होकर बोले--तब तो भैया, हम तुम्हें न जाने देंगे। बाल-बच्चों को बुला लो और यहीं रहो। हमारे बाल-बच्चे भी कुछ पढ़ जायेंगे। फिर शहर भेज देंगे। वहाँ जात-बिरादरी कौन पूछता है। लिखा दिया--हम छत्तरी हैं।

अमर मुसकराया--और जो पीछे से खुल गया ?

चौधरी का जवाब तैयार था--तो हम कह देंगे, हमारे पुरबज छत्तरी थे, हालाँ कि अपने को छत्तरी-वैश कहते लाज आती है। सुनते हैं, छत्तरी लोगो ने मुसलमान बादशाहों को अपनी बेटियाँ ब्याही थीं। अभी कुछ जलपान तो न किया होगा भैया? कहाँ गया तेजा! बहू से कुछ जलपान करने को ले आ। भैया, भगवान् का नाम लेकर यहीं टिक जाओ। तीन-चार बीघे सलोनी के पास हैं। दो बीघे हमारे साझे में कर लेना। इतना बहुत है। भगवान् दें तो खाये न चुके।

लेकिन जब सलोनी बुलायी गयी और उससे चौधरी ने प्रस्ताव किया, तो वह बिचक उठी। कठोर मुद्रा से बोली--तुम्हारी मंशा है, अपनी ज़मीन इनके नाम करा दूं और मैं हवा खाऊँ, यही तो?

चौधरी ने हँसकर कहा--नहीं-नहीं जमीन तेरे ही नाम रहेगी पगली। यह तो खाली जोतेंगे। यही समझ ले कि तू इन्हें बटाई पर दे रही है।

सलोनी ने कानों पर हाथ रखकर कहा--भैया, अपनी जगह-जमीन मैं किसी के नाम नहीं लिखती। यों हमारे पाहुने हैं, दो-चार-दस दिन रहें।

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कर्मभूमि