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चौधरी ने घुड़ककर कहा--मुझे नहीं चाहिए। धरे रह अपने खेत।

सलोनी ने अमर से अपील की--भैया, तुम्हीं सोचो, मैंने कुछ बेजा कहा? बे जाने-सुने किसी को कोई अपनी चीज़ दे देता है।

अमर ने सांत्वना दी--नहीं काकी, तुमने बहुत ठीक किया। इस तरह विश्वास कर लेने से धोखा हो जाता है।

सलोनी को कुछ ढाढ़स हुआ--तुमसे तो बेटा मेरी रात ही भर की जान-पहचान है न। जिसके पास मेरे खेत आजकल हैं, वह तो मेरा ही भाई-बन्द है। उससे छीनकर तुम्हें दे दूँ, तो वह अपने मन में क्या कहेगा। सोचो, अगर मैं अनुचित कहती हूँ, तो मेरे मुंह पर थप्पड़ मारो। वह मेरे साथ बेईमानी करता है, यह जानती हूँ; पर है तो अपना ही हाड़-माँस। उसके मुँह की रोटी छीनकर तुम्हें दे दूँ, तो तुम मुझे भला कहोगे बोलो ?

सलोनी ने यह दलील खुद सोच निकाली थी, या किसी और ने सुझा दी थी; पर इसने गूदड़ को लाजवाब कर दिया।


दो महीने बीत गये।

पूस की ठंढी रात काली कमली ओढ़े पड़ी हुई थी। ऊँचा पर्वत किसी विशाल महत्वाकांक्षा की भाँति, तारिकाओं का मुकुट पहने खड़ा था। झोंपड़ियाँ जैसे उसकी वह छोटी-छोटी अभिलाषाएँ थीं, जिन्हें वह ठुकरा चुका था।

अमरकान्त की झोपड़ी में एक लालटेन जल रही है। पाठशाला खुली हुई है। पन्द्रह-बीस लड़के खड़े अभिमन्यु की कथा सुन रहे हैं। अमर खड़ा वह कथा कह रहा है। सभी लड़के कितने प्रसन्न हैं। उनके पीले चेहरे चमक रहे हैं, आँखें जगमगा रही हैं। शायद वे भी अभिमन्यु-जैसे वीर, वैसे ही कर्तव्य परायण होने का स्वप्न देख रहे हैं। उन्हें क्या मालूम, एक दिन उन्हें दुर्योधनों और जरासन्धों के सामने घुटने टेकने पड़ेंगे, माथे रगड़ने पड़ेंगे, कितनी बार वे चक्रव्यूहों से भागने की चेष्टा करेंगे, और भाग न सकेंगे।

गूदड़ चौधरी चौपाल में बोतल और कुञ्जी लिये कुछ देर तक विचार में

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कर्मभूमि