डूबे बैठे रहे। फिर कुञ्जी फेंक दी। बोतल उठाकर आले पर रख दी और मुन्नी को पुकारकर कहा--अमर भैया से कह, आकर खाना खा लें। इस भले आदमी को जैसे भूख ही नहीं लगती, पहर रात गयी, अभी तक खाने पीने की सुधि नहीं।
मुन्नी ने बोतल की ओर देखकर कहा--तुम जब तक पी लो। मैंने तो इसीलिए नहीं बुलाया।
गूदड़ ने अरुचि से कहा--आज तो पीने का जी नहीं चाहता बेटी। कौन बड़ी अच्छी चीज़ है?
मुन्नी आश्चर्य से चौधरी की ओर ताकने लगी। उसे आये यहाँ तीन साल से अधिक हुए। कभी चौधरी को नागा करते नहीं देखा, कभी उनसे मुँह से ऐसी विराग की बात नहीं सुनी। सशंक होकर बोली--आज तुम्हारा जी अच्छा नहीं है क्या दादा?
चौधरी ने हँसकर कहा--जी क्यों नहीं अच्छा है। मँगायी तो थी पीने ही के लिए; पर अब जी नहीं चाहता। अमर भैया की बात आज मेरे मन में बैठ गयी। कहते हैं--जहाँ सौ में अस्सी आदमी भूखों मरते हों, वहाँ दारू पीना ग़रीबों का रक्त पीने के बराबर है। कोई दूसरा कहता, तो न मानता; पर उनकी बात न जाने क्यों दिल में बैठ जाती है।
मुन्नी चिन्तित हो गयी--तुम उनके कहने में न आओ, दादा! अब छोड़ना तुम्हें अवगुन करेगा। कहीं देह में दरद होने लगे।
चौधरी ने इन विचारों को जैसे तुच्छ समझकर कहा--चाहे दरद हो, चाहे बाई हो, अब पीऊँगा नहीं। जिन्दगी में हज़ारों रुपये की दारू पी गया। सारी कमाई नशे में उड़ा दी। उतने रुपये से कोई उपकार का काम करता, तो गाँव का भला होता और जस भी मिलता। मूरख को इसी से बुरा कहा है। साहब लोग सुना है, बहुत पीते हैं; पर उनकी बात निराली है। यहाँ राज करते हैं। लूट का धन मिलता है, वह न पीयें, तो कौन पीये। देखती है, अब काशी और पयाग को भी कुछ लिखने-पढ़ने का चस्का होने लगा है।
पाठशाला बन्द हुई। अमर, तेजा और दुर्जन की उँगली पकड़े हुए आकर चौधरी से बोला--मुझे तो आज देर हो गयी है दादा, तुमने खा-पी लिया न?
चौधरी स्नेह में डूब गये--हाँ और क्या, मैं ही तो पहर रात से जुता