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पर हिल न सकती थी ; और अमरकान्त ऐसा विरक्त हो रहा था, मानों जीवन उसे भार हो रहा है।

उसी वक्त महरी ने ऊपर से आकर कहा--भैया तुम्हें बहूजी बुला रही हैं।

अमरकान्त ने बिगड़कर कहा--जा कह दे, फुरसत नहीं है। चली वहाँ से बहूजी बुला रही हैं!

लेकिन जब महरी लौटने लगी, तो उसने अपने तीखेपन पर लज्जित होकर कहा--मैंने तुम्हें कुछ नहीं कहा है सिल्लो। कह दो अभी आता हूँ। तुम्हारी रानी जी क्या कर रही हैं?

सिल्लो का पूरा नाम था कौशल्या। सीतला में पति, पुत्र और एक आंख जाती रही थी तब से विक्षिप्त सी हो गयी थी। रोने की बात पर हँसती, हँसने की बात पर रोती। घर के और सभी प्राणी, यहां तक कि नौकर-चाकर तक उसे डाँटते रहते थे। केवल अमरकान्त उसे मनुष्य समझता था। कुछ स्वस्थ होकर बोली--बैठी कुछ लिख रही हैं। लालाजी चीखते थे। इसी से तुम्हें बुला भेजा।

अमर जैसे गिर पड़ने के बाद गर्द झाड़ता हुआ, प्रसन्नमुख ऊपर चला। सुखदा अपने कमरे के द्वार पर खड़ी थी। बोली--तुम्हारे तो दर्शन ही दुर्लभ हो जाते हैं। स्कूल से आकर चरखा ले बैठते हो। क्यों नहीं मुझे घर भेज देते ? जब मेरी ज़रूरत समझना बुला भेजना। अबकी आये मुझे छः महीने हुए। मीयाद पूरी हो गई। अब तो रिहाई हो जानी चाहिए!

यह कहते हुए उसने एक तश्तरी में कुछ नमकीन और मिठाई लाकर मेज पर रख दी और अमर का हाथ पकड़ कमरे में ले जाकर कुर्सी पर बैठा दिया।

यह कमरा और सब कमरों से बड़ा, हवादार और सुसज्जित था। दरी का फ़र्श था, उस पर करीने से कई गद्देदार और सादी कुर्सियां लगी हई थीं। बीच में एक छोटी सी नक्शदार गोल मेज थी। शीशे की आलमारियों में सजिल्द पुस्तकें सजी हुई थीं। आलों पर तरह-तरह के खिलौने रखे हुए थे। एक कोने में मेज पर हारमोनियम रखा था। दीवारों पर धुरन्धर, रवि वर्मा और कई चित्रकारों की तस्वीरें शोभा दे रही थीं।

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कर्मभूमि