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थी। ऐसे भले आदमी पर उसने क्यों अविश्वास किया। लजाती हुई बोली--अभी तुम क्यों लाये भैया? सूत कत जाता, तो ले आते।

अमर के हाथ में लालटेन थी। बुढ़िया ने जोड़ा ले लिया और उसकी तहों को खोलकर ललचाई हुई आँखों से देखने लगी। सहसा वह बोल उठी--यह तो दो हैं बेटा, मैं दो लेकर क्या करूँगी। एक तुम लेते जाओ!

अमरकान्त ने कहा--तुम दोनों रख लो काकी! एक से कैसे काम चलेगा।

सलोनी को अपने जीवन के सुनहरे दिनों में भी दो धोतियाँ मयस्सर न हुई थीं। पति और पुत्र के राज में भी एक धोती से ज्यादा कभी न मिली। और आज ऐसी सुन्दर दो-दो साड़ियाँ मिल रही हैं, ज़बरदस्ती दी जा रही हैं। उसके अन्तःकरण से मानों दूध की धारा बहने लगी। उसका सारा वैधव्य, सारा मातृत्व, आशीर्वाद बनकर उसके एक-एक रोम को स्पन्दित करने लगा।

अमरकान्त कोठरी से बाहर निकल आया। सलोनी रोती रही।

अपनी झोपड़ी में आकर अमर कुछ अनिश्चित दशा में खड़ा रहा। फिर अपनी डायरी लिखने बैठ गया। उसी वक्त चौधरी के घर का द्वार खुला और मुन्नी कलसा लिये पानी भरने निकली। इधर लालटेन जलती देखकर वह इधर चली आई, और द्वार पर खड़ी होकर बोली--अभी सोये नहीं लाला, रात तो बहुत गयी।

अमर बाहर निकलकर बोला--हाँ, अभी नींद नहीं आयी। क्या पानी नहीं था?

'हाँ आज सब पानी उठ गया। अब जो प्यास लगी, तो कहीं एक बूंद नहीं !'

'लाओ, मैं खींच ला दूँ। तुम इस अँधेरी रात में कहाँ जाओगी।'

'अँधेरी रात में शहरवालों को डर लगता है। हम तो गाँव के हैं।'

'नहीं मुन्नी, मैं तुम्हें न जाने दूँगा।'

'तो क्या मेरी जान से तुम्हारी जान प्यारी है ?'

'मेरी जैसी एक लाख जानें तुम्हारी जान पर न्यौछानर हैं।'

मुन्नी ने उसकी ओर अनुरक्त नेत्रों से देखा--तुम्हें भगवान् ने मेहरिया

कर्मभूमि
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