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पृष्ठ:कर्मभूमि.pdf/१६२

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क्यों नहीं बनाया लाला। इतना कोमल हृदय तो किसी मर्द का न देखा। मैं तो कभी-कभी सोचती हूँ, तुम यहाँ न आते, तो अच्छा होता।

अमर मुस्कराकर बोला--मैंने तुम्हारे साथ क्या बुराई की है मुन्नी ?

मुन्नी काँपते हुए स्वर में बोली--बुराई नहीं की ? जिस अनाथ बालक का कोई पूछने वाला न हो, उसे गोद और खिलौनों और मिठाइयों का चसका डाल देना क्या बुराई नहीं? यह सुख पाकर क्या वह बिना लाड़-प्यार के रह सकता है ?

अमर ने करुण स्वर में कहा--अनाथ तो मैं था मुन्नी ! तुमने मुझे गोद और प्यार का चसका डाल दिया। मैंने तो रो-रोकर तुम्हें दिक ही किया है।

मुन्नी ने कलसा ज़मीन पर रख दिया और बोली--मैं तुमसे बातों में न जीतूँगी लाला; लेकिन तुम न थे, तब मैं बड़े आनन्द से थी। घर का धन्धा करती थी, रूखा-सूखा खाती थी और सो रहती थी। तुमने मेरा वह सुख छीन लिया। अपने मन में कहते होगे, बड़ी चंचल नार है। कहो, जब मर्द औरत हो जाय, तो औरत को मर्द बनना ही पड़ेगा। जानती हूँ, तुम मुझसे भागे-भागे फिरते हो, मुझसे गला छुड़ाते हो। यह भी जानती हूँ, तुम्हें पा नहीं सकती। मेरे ऐसे भाग्य कहाँ ? पर छोड़ूँगी नहीं। मैं तुमसे और कुछ नहीं माँगती। बस इतना ही चाहती हूँ, कि तुम मुझे अपनी समझो। मुझे मालूम हो कि में भी स्त्री हूँ, मेरे सिर पर भी कोई है, मेरी ज़िन्दगी भी किसी के काम आ सकती है।

अमर ने अब तक मुन्नी को उसी तरह देखा था, जैसे हर एक युवक किसी सुन्दरी स्त्री को देखता है--प्रेम से नहीं, केवल रसिक भाव से, पर इस आत्म-समर्पण ने उसे विचलित कर दिया। दुधार गाय के भरे हुए थनों को देखकर हम प्रसन्न होते हैं--इनमें कितना दूध होगा। केवल उसकी मात्रा का भाव हमारे मन में आ जाता है। हम गाय को पकड़कर दुहने के लिए तैयार नहीं हो जाते; लेकिन दूध का सामने कटोरे में आ जाना दूसरी बात है। अमर ने दूध के कटोरे की ओर हाथ बढ़ा दिया--आओ हम तुम कहीं चले चलें मुन्नी, वहाँ मैं कहूँगा यह मेरी...

मुन्नी ने उसके मुंह पर हाथ रख दिया और बोली–-बस, और कुछ न कहना। मर्द सब एक-से होते हैं। मैं क्या कहती थी, तुम क्या समझ गये।

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कर्मभूमि