तो क्या आप मेरे भाई न रहेंगे? जो नाता भगवान् ने जोड़ दिया है, क्या उसे आप तोड़ सकते हैं? इतना बलवान मैं आपको नहीं समझती। इससे भी प्यारा और कोई नाता संसार में है, मैं नहीं समझती। मां में केवल वात्सल्य है। बहन में क्या है, नहीं कह सकती, पर वह वात्सल्य से कोमल अवश्य है। मां अपराध का दण्ड भी देती है। बहन क्षमा का रूप है। भाई न्याय करे, डाँटे या प्यार करे, मान करे, अपमान करे, बहन के पास क्षमा के सिवा और कुछ नहीं है। वह केवल उसके स्नेह को भूखी है।
'जबसे आप गये हैं, किताबों की ओर ताकने की इच्छा नहीं होती। रोना आता है। किसी काम में जी नहीं लगता। चरखा भी पड़ा मेरे नाम को रो रहा है। बस अगर कोई आनन्द की वस्तु है, तो वह मुन्नू है। वह मेरे गले का हार हो गया है। क्षण-भर को भी नहीं छोड़ता। इस वक्त सो गया है, तब यह पत्र लिख सकी हूँ, नहीं उसने चित्रलिपि में वह पत्र लिखा होता, जिसको बड़े-बड़े विद्वान् भी न समझ सकते। भाभी को उससे अब उतना स्नेह नहीं रहा। आपकी चर्चा वह कभी भूलकर भी नहीं करतीं। धर्म-चर्चा और भक्ति से उन्हें विशेष प्रेम हो गया है। मुझसे भी बहुत कम बोलती है। रेणुका देवी उन्हें लेकर लखनऊ जाना चाहती थीं पर वह नहीं गयीं। एक दिन उनकी गऊ का विवाह था। शहर के हजारों देवताओं का भोज हुआ। हम लोग भी गये थे। यहां के गऊशाले के लिए उन्होंने दस हजार रुपये दान किये हैं।
'अब दादाजी का हाल सुनिये। वह आजकल एक ठाकुरद्वारा बनवा रहे हैं। ज़मीन तो पहले ही ले चुके थे। पत्थर जमा हो रहा है। ठाकुरद्वारे की बुनियाद रखने के लिए राजा साहब को निमन्त्रण दिया जायगा। न-जाने क्यों दादा अब किसी पर क्रोध नहीं करते। यहाँ तक कि ज़ोर से बोलते भी नहीं। दाल में नमक तेज़ हो जाने पर जो थाली पटक देते थे, अब चाहे कितना ही नमक पड़ जाय, बोलते भी नहीं। सुनती हूँ, असामियों पर भी उतनी सख्ती नहीं करते। जिस दिन बुनियाद पड़ेगी, बहुत से असामियों का बक़ाया मुआफ़ भी करेंगे। पठानिन को अब पाँच की जगह पच्चीस रुपये मिलने लगे हैं। लिखने की तो बहुत-सी बातें हैं; पर लिखूँगी नहीं। आप अगर यहाँ आयें, तो छिपकर आइएगा, क्योंकि लोग झल्लाये हए हैं। हमारे घर कोई नहीं आता-जाता।'