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दूसरा खत सलीम का है : 'मैंने तो समझा था, तुम गंगाजी में डूब मरे और तुम्हारे नाम को, प्याज़ की मदद से, दो-तीन क़तरे आँसू बहा दिये थे और तुम्हारी रूह को नजात के लिए एक बरहमन को एक कौड़ी ख़ैरात भी कर दी थी, मगर यह मालूम करके रंज हुआ कि आप ज़िन्दा हैं और मेरा मातम बेकार हुआ। आँसुओं का तो ग़म नहीं, आँखों को कुछ फ़ायदा ही हुआ; मगर उस कौड़ी का जरूर ग़म है। भले आदमी, कोई पाँच-पाँच महीने तक यों खमोशी अख्तियार करता है ! खैरियत यही है कि तुम यहाँ मौजूद नहीं हो। बड़े क़ौमी खादिम की दुम हो। जो आदमी अपने प्यारे दोस्तों से इतनी बेवफ़ाई करे, वह क़ौम की खिदमत क्या खाक करेगा?

'खुदा की क़सम रोज तुम्हारी याद आती थी। कालेज जाता हूँ, जी नहीं लगता। तुम्हारे साथ कालेज की रौनक़ चली गयी। उधर अब्बाजान सिविल सर्विस की रट लगा-लगा कर और भी जान लिये लेते हैं। आख़िर कभी आओगे भी, या काले पानी की सज़ा भोगते रहोगे।

'कालेज के हाल साबिक़ दस्तूर हैं--वही ताश हैं, वही लेक्चरों से भागना है, वही मैच है। हाँ, कान्वोकेशन का ऐड्रेस अच्छा रहा। वाइस चांसलर ने सादा ज़िन्दगी पर जोर दिया। तुम होते, तो उस ऐड्रेस का मज़ा उठाते। मुझे तो वह फीका मालूम होता था। सादा ज़िन्दगी का सबक़ तो सब देते हैं पर कोई नमूना बनकर दिखाता नहीं। यह जो अनगिनती लेक्चरार और प्रोफ़ेसर हैं, क्या सब-के-सब सादा जिन्दगी के नमूने हैं ? वह तो लिविंग का स्टैंडर्ड ऊँचा कर रहे हैं, तो फिर लड़के भी क्यों न ऊँचा करें ? क्यों न बहती गंगा में हाथ धोयें ? वाइस चांसलर साहब, मालूम नहीं, सादगी का सबक़ अपने स्टाफ़ को क्यों नहीं देते ! प्रोफेसर भाटिया के पास तीस जोड़े जूते हैं और बाज़-बाज़ ५०) के हैं। खेर, उनकी बात छोड़ो। प्रोफ़ेसर चक्रवती तो बड़े किफ़ायतशार मशहूर हैं। जोरू न जाँता, अल्ला मियाँ से नाता। फिर भी जानते हो कितने नौकर हैं उनके पास ? कुल बारह ! तो भाई हम लोग तो नौजवान हैं, हमारे दिलों में नया शौक है, नये अरमान हैं, घरवालों से माँगेंगे, न देंगे तो लड़ेंगे, दोस्तों से क़र्ज लेंगे, दुकानदारों की खुशामद करेंगे; मगर शान से रहेंगे ज़रूर। वह जहन्नम में जा रहे हैं, तो हम भी जहन्नम जायँगे, मगर इनके पीछे-पीछे।

कर्मभूमि
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