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पृष्ठ:कर्मभूमि.pdf/१६७

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कहा था--बाबूजी, मैं भी चलती हूँ। ओह ! कितना अनुराग था। किसी मजूर को गढ़ा खोदते-खोदते जैसे कोई रत्न मिल जाय। और वह अपने अज्ञान में उसे काँच का टुकड़ा समझ रहा था!

'इतना अरमान है, कि मरने के पहले आपको देख लेती'--यह वाक्य जैसे उसके हृदय में चिमट गया था। उसका मन जैसे गङ्गा की लहरों पर तैरता हुआ सकीना को खोज रहा था। लहरों की ओर तन्मयता से ताकते-ताकते उसे मालूम हुआ मैं बहा जा रहा हूँ। वह चौंककर घर की तरफ़ चला। दोनों आँखें तर, नाक पर लाली और गालों पर आर्द्रता।'


गाँव में एक आदमी सगाई लाया है। उस उत्सव में नाच, गाना, भोज हो रहा है। उसके द्वार पर नगड़ियाँ बज रही है, गाँव भर के स्त्री, पुरुष, बालक जमा हैं और नाच शुरू हो गया है। अमरकान्त की पाठशाला आज बन्द है। लोग उसे भी खींच लाये हैं।

पयाग ने कहा--चलो भैया, तुम भी कुछ करतब दिखाओ। सुना है तुम्हारे देश में लोग खूब नाचते हैं।

अमर ने जैसे क्षमा-सी माँगी--भाई, मुझे तो नाचना नहीं आता।

उसकी इच्छा हो रही है कि नाचना आता, तो इस समय सबको चकित कर देता।

युवकों और युवतियों के जोड़ बँधे हुए हैं। हरेक जोड़ दस-पन्द्रह मिनट तक थिरककर चला जाता है। नाचने में कितना उन्माद, कितना आनन्द है, अमर ने न समझा था।

एक युवती घूँघट बढ़ाये हुए रङ्गभूमि में आती है। इधर से पयाग निकलता है। दोनों नाचने लगते हैं। युवती के अङ्गों में इतनी लचक है, उसके अङ्ग-विलास में भावों की ऐसी व्यंजना कि लोग मुग्ध हुए जाते हैं।

इस जोड़ के बाद दूसरा जोड़ आता है। युवक गठीला जवान है, चौड़ी छाती, उस पर सोने की मुहर, कछनी काछे हुए। युवती को देखकर अमर चौंक उठा। मुन्नी है। उसने घेरदार लहँगा पहना है, गुलाबी ओढ़नी ओढ़ी है, और

कर्मभूमि १६३