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पाँव में पैजनियाँ बाँध ली हैं। गुलाबी घूँघट में दोनों कपोल दो फूलों की भाति खिले हुए हैं। दोनों कभी हाथ में हाथ मिलाकर, कभी कमर पर हाथ रखकर, कभी कूल्हों को ताल में मटकाकर नाचने में उन्मत्त हो रहे हैं। सभी मुग्ध नेत्रों से इन कलाविदों की कला देख रहे हैं। क्या फुरती है, क्या लचक है ! और उनकी एक-एक लचक में एक-एक गति में कितनी मार्मिकता, कितनी मादकता! दोनों हाथ में हाथ मिलाये, थिरकते हुए रङ्गभूमि के उस सिरे तक चले जाते हैं और क्या मजाल कि एक गति भी बेताल हो।

पयाग ने कहा--देखते हो भैया, भाभी कैसा नाच रही हैं। अपना जोड़ नहीं रखतीं।

अमर ने विरक्त भाव से कहा--हाँ देख तो रहा हूँ।

'मन हो, तो उठो, मैं उस लौंडे को बुला लूँ।'

'नहीं, मुझे नहीं नाचना है।'

मुन्नी नाच ही रही थी कि अमर उठकर घर चला आया। वह बेशर्मी अब उससे नहीं सही जाती।

एक ही क्षण के बाद मुन्नी ने आकर कहा--तुम चले क्यों आये लाला? क्या मेरा नाचना अच्छा न लगा?

अमर ने मुँह फेरकर कहा--क्या मैं आदमी नहीं हूँ कि अच्छी चीज़ को बुरा समझूँ ?

मुन्नी और समीप आकर बोली--तो फिर चले क्यों आये ?

अमर ने उदासीन भाव से कहा--मझे एक पंचायत में जाना है। लोग बैठे मेरी राह देख रहे होंगे। तुमने क्यों नाचना बन्द कर दिया?

मुन्नी ने भोलेपन से कहा--तुम चले आये, तो नाचकर क्या करती?

अमर ने उसकी आँखों में आँखें डालकर कहा--सच्चे मन से कह रही हो मुन्नी?

मुन्नी उससे आँखें मिलाकर बोली--मैं तुमसे कभी झूठ बोली ?

'मेरी एक बात मानो। अब फिर कभी मत नाचना ।'

मुन्नी उदास होकर बोली--तो तुम इतनी ज़रा-सी बात पर रूठ गये? ज़रा किसी से पूछो, मैं आज कितने दिनों के बाद नाची हूँ। दो साल से मैं

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कर्मभूमि