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नगाड़े के पास नहीं गयी, लोग कह-कहकर हार गये। आज तुम्हीं मुझे ले गये, और अब उलटे तुम्हीं नाराज़ होते हो!

मुन्नी घर में चली गयी। थोड़ी देर बाद काशी ने आकर कहा--भाभी, तुम यहाँ क्या कर रही हो? तुम्हें वहाँ सब लोग बुला रहे हैं।

मन्नी ने सिर-दर्द का बहाना किया।

काशी आकर अमर से बोला--तुम क्यों चले आये भैया? क्या गँवारों का नाच गाना अच्छा न लगा?

अमर ने कहा--नहीं जी, यह बात नहीं। एक पंचायत में जाना है। देर हो रही है।

काशी बोला--भाभी नहीं जा रही हैं। इसका नाच देखने के बाद अब दूसरों का रंग नहीं जम रहा है। तुम चलकर कह दो, तो साइत चली जाय। कौन रोज़-रोज़ यह दिन आता है। बिरादरीवाली बात है। लोग कहेंगे, हमारे यहां काम आ पड़ा, तो मुँह छिपाने लगे।

अमर ने धर्म-संकट में पड़कर कहा--तुमने समझाया नहीं?

फिर अन्दर जाकर कहा--मुझसे नाराज़ हो गयीं मुन्नी ?

मन्नी आँगन में आकर बोली--तुम मझसे नाराज़ हो गये, कि मैं तुमसे नाराज़ हो गयी ?

'अच्छा, मेरे कहने से चलो।'

'जैसे बच्चे मछलियों को खिलाते हैं, उसी तरह तुम मुझे खिला रहे हो, लाला! जब चाहा रुला दिया, जब चाहा हँसा दिया। लाला अब तो मुन्नी तभी नाचेगी, जब तुम उसका हाथ पकड़कर कहोगे--चलो हम-तुम नाचें। वह अब और किसी के साथ न नाचेगी।'

'तो अब नाचना सीखूँ ?'

मुन्नी ने अपनी विजय का अनुभव करके कहा--मेरे साथ नाचना चाहोगे, तो आप सीखोगे।

'तो सिखा दोगी?'

'तुम मुझे रोना सिखा रहे हो, मैं तुम्हें नाचना सिखा दूँगी।'

'अच्छा चलो।'

कालेज के सम्मेलनों में अमर कई बार ड्रामा खेल चुका था। स्टेज पर

कर्मभूमि
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