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दो तीन पुराने चित्र भी थे। कमरे की सजावट से सुरुचि और सम्पन्नता का आभास होता था।

अमरकान्त का सुखदा से विवाह हुए दो साल हो चुके थे। सुखदा दो बार तो एक महीना रहकर चली गयी थी। अबकी उसे आये छः महीने हो गये थे ; मगर उनका स्नेह अभी तक ऊपर-ही-ऊपर था। गहराइयों में दोनों एक दूसरे से अलग अलग थे। सुखदा ने कभी अभाव न जाना था, जीवन की कठिनाइयाँ न सही थीं वह जाने-माने मार्ग को छोड़कर अनजान रास्ते पर पाँव रखते डरती थी। भोग विलास को वह जीवन की सबसे मूल्यवान वस्तु समझती थी और उसे हृदय से लगाये रहना चाहती थी। अमरकान्त का वह घर के काम काज की ओर खींचन का प्रयास करती थी। कभी समझाती थी, कभी रूठती थी, कभी बिगड़ती थी। सास के न रहने से वह एक प्रकार से घर की स्वामिनी हो गयी थी। बाहर के स्वामी लाला समरकान्त थे; पर भीतर का संचालन सुखदा ही के हाथों था। किन्तु अमरकान्त उसकी बातों को हँसो में टाल देता। उस पर अपना प्रभाव डालने की कभी चेष्टा न करता। उसकी विलासप्रियता मानों खेतों के हौवे की भाँति उसे डराती रहती थी। खेत में हरियाली थी, दाने थे; लेकिन वह हौवा निश्चल भाव से दोनों हाथ फैलाये खड़ा उसकी ओर घूरता रहता था। अपनी आशा और दुराशा, हार और जीत को वह सुखदा से बराई की भांति छिपाता था। कभी कभी उसे घर लौटने में देर हो जाती तो सुखदा व्यंग करने से बाज न आती थी--हाँ, यहाँ कौन अपना बैठा हुआ है ! बाहर के मजे घर में कहाँ ! और यह तिरस्कार, किसान की 'कडे कडे' की भांति, हौवे के भय को और भी उत्तेजित कर देता था। वह उसकी खुशामद करता, अपने सिद्धांतों को लम्बी-से-लम्बी रस्सी देता; पर सुखदा इसे उसकी दुर्बलता समझकर ठुकरा देती थी। वह पति को दया भाव से देखती थी, उसको त्यागमय प्रवृत्ति का अनादर न करती थी, पर इसका तथ्य न समझ सकती थी। वह अगर सहानुभूति की भिक्षा मांगता, उसके सहयोग के लिए हाथ फैलाता, तो शायद वह उसकी उपेक्षा न करती। पर अमरकान्त तो अपनी मुट्ठी बन्द करके अपनी मिठाई आप खाकर, उसे रुला देता था। निदान वह भी अपनी मुट्ठी बन्द कर लेती थी और

कर्मभूमि
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