नाचा भी था, गाया भी था; पर उस नाच और इस नाच में बड़ा अन्तर था। वह विलासियों की काम-कीड़ा थी, यह श्रमिकों की स्वच्छन्द केलि। उसका दिल सहमा जाता था।
उसने कहा--मुन्नी, तुमसे एक वरदान माँगता हूँ।
मुन्नी ने ठिठककर कहा--तो तुम नाचोगे नहीं?
'यही तो तुमसे वरदान माँग रहा हूँ।'
अमर ठहरो ठहरो कहता रहा, पर मुन्नी लौट पड़ी।
अमर भी अपनी कोठरी में चला आया, और कपड़े पहनकर पंचायत में चला गया। उसका सम्मान बढ़ रहा है। आस-पास के गाँवों में भी जब कोई पंचायत होती है, तो उसे अवश्य बुलाया जाता है।
६
सलोनी काकी ने अपने घर की जगह पाठशाला के लिए दे दी है। लड़के बहुत आने लगे हैं। उस छोटी-सी कोठरी में जगह नहीं है। सलोनी से किसी ने जगह माँगी नहीं, कोई दबाव भी नहीं डाला गया। बस, एक दिन अमर और चौधरी बैठे बातें कर रहे थे, कि नयी शाला कहाँ बनायी जाय, गाँव में तो बैलों के बाँधने तक की जगह नहीं। सलोनी उनकी बातें सुनती रही। फिर एकाएक बोल उठी--मेरा घर क्यों नहीं ले लेते? बीस हाथ पीछे खाली जगह पड़ी है। क्या इतनी ज़मीन में तुम्हारा काम न चलेगा!
दोनों आदमी चकित होकर सलोनी का मुँह ताकने लगे।
अमर ने पूछा--और तू रहेगी कहाँ काकी?
सलोनी ने कहा--उँह ! मुझे घर-द्वार लेकर क्या करना है बेटा ! तुम्हारी ही कोठरी में आकर एक कोने में पड़ रहूँगी।
गूदड़ ने मन में हिसाब लगाकर कहा--जगह तो बहुत निकल आयेगी।
अमर ने सिर हिलाकर कहा--मैं काकी का घर नहीं लेना चाहता। महन्तजी से मिलकर गाँव में बाहर पाठशाला बनवाऊँगा।
काकी ने दुखित होकर कहा--क्या मेरी जगह में कोई छूत लगी है भैया?