पृष्ठ:कर्मभूमि.pdf/१७१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।

गूदड़ ने फैसला कर दिया। काकी का घर मदरसे के लिए ले लिया जाय। उसी में एक कोठरी अमर के लिए भी बना दी जाय। काकी अमर की झोपड़ी में रहे। एक किनारे बैल-गाय बाँध लेगी। एक किनारे पड़ रहेगी।

आज सलोनी जितनी खुश है, उतनी शायद और कभी न हुई हो। वही बुढ़िया, जिसके द्वार पर कोई बैल बाँध देता, तो लड़ने को तैयार हो जाती, जो बच्चों को अपने द्वार पर गोलियाँ न खेलने देती, आज अपने पुरुखों का घर देखकर अपना जीवन सफल समझ रही है। यह कुछ असङ्गत-सी बात है; पर दान कृपण ही दे सकता है। हाँ, दान का हेतु ऐसा होना चाहिए जो उसकी नज़र में उसके मर-मर के संचे हुए धन के योग्य हो।

चटपट काम शुरू हो जाता है। घरों से लड़कियाँ निकल आयीं, रस्सी निकल आयी, मजूर निकल आये, पैसे निकल आये। न किसी से कहना पड़ा, न सुनना। वह उनकी अपनी शाला थी । उन्हीं के लड़के-लड़कियाँ तो पढ़ते थे। और इस छ: सात महीने में ही उन पर शिक्षा का कुछ असर भी दिखायी देने लगा था। वह अब साफ़ रहते हैं, झूठ कम बोलते हैं, झूठे बहाने कम करते हैं, गालियाँ कम बकते हैं, और घर से कोई चीज़ चुराकर नहीं ले जाते। न उतनी ज़िद्द ही करते हैं, घर का जो कुछ काम होता है, उसे शौक़ से करते हैं। ऐसी शाला की कौन मदद न करेगा।

फागुन का शीतल प्रभात सुनहरे वस्त्र पहने पहाड़ पर खेल रहा था। अमर कई लड़कों के साथ गंगा-स्नान करके लौटा; पर आज अभी तक कोई आदमी काम करने नहीं आया। यह बात क्या है ? और दिन तो उसके स्नान करके लौटने के पहले ही कारीगर आ जाते थे। आज इतनी देर हो गई और किसी का पता नहीं ?

सहसा मुन्नी सिर पर कलसा रखे आकर खड़ी हो गयी। वही शीतल, सुनहरा प्रभात उसके गेहुएँ मुखड़े पर मचल रहा था।

अमर ने मुसकराकर कहा--यह देखो, सूरज देवता तुम्हें घूर रहे हैं।

मुन्नी ने कलसा उतारकर हाथ में ले लिया और बोली--और तुम बैठे देख रहे हो।

फिर एक क्षण के बाद उसने कहा--तुम तो जैसे आजकल गाँव में

कर्मभूमि
१६७