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गूदड़ ने हँसकर कहा--भैया, तुम बड़े बुद्धिमान हो, तुमसे कोई न जीतेगा। चलो, अब कोई मुर्दा नहीं खायेगा। हम लोगों ने यह तय कर लिया। हमने क्या तय किया, बहू ने तय किया। मगर खाल तो न फेंकनी होगी?

अमर ने प्रसन्न होकर कहा--नहीं दादा, खाल क्यों फेंकोगे? जूते बनाना तो सब से बड़ी सेवा है। मगर क्या भाभी बहुत बिगड़ी थी?

गूदड़ बोला--बिगड़ी ही नहीं थी भैया, वह तो जान देने को तैयार थी। गाय के पास बैठ गयी और बोली--अब चलाओ, गँडा़सा, पहला गँडा़सा मेरी गरदन पर होगा! फिर किसकी हिम्मत थी, कि गँडा़सा चलाता।

अमर का हृदय जैसे एक छलांग मारकर मुन्नी के चरणों पर लोटने लगा।


कई महीने गुजर गये। गाँव में फिर मुरदा-मांस न आया। आश्चर्य की को बात तो यह थी, कि दूसरे गाँवों के चमारों ने भी मुर्दा-माँस खाना छोड़ दिया। शुभ उद्योग कुछ संक्रामक होता है।

अमर की शाला अब नई इमारत में आ गई थी। शिक्षा का लोगों को कुछ ऐसा चस्का पड़ गया था, कि जवान तो जवान, बूढ़े भी आ बैठते और कुछ-न-कुछ सीख जाते। अमर की शिक्षा-शैली आलोचनात्मक थी। अन्य देशों को सामाजिक और राजनैतिक प्रगति, नये-नये आविष्कार, नये-नये विचार, उसके मुख्य विषय थे। देश-देशान्तरों के रस्मो-रिवाज, आचार-विचार की कथा सभी चाव से सुनते। उसे यह देखकर कभी-कभी विस्मय होता था कि ये निरक्षर लोग जटिल सामाजिक सिद्धान्तों को कितनी आसानी से समझ जाते हैं। सारे गाँव में एक नया जीवन प्रवाहित होता हुआ जान पड़ता था। छूत-छात का जैसे लोप हो गया था। दूसरे गाँवों की ऊँची जातियों के लोग भी अक्सर आ जाते थे।

दिन भर के परिश्रम के बाद अमर लेटा हुआ एक उपन्यास पढ़ रहा था, कि मुन्नी आकर खड़ी हो गयी। अमर पढ़ने में इतना लिप्त था, कि मन्नी के आने की उसको खबर न हुई। राजस्थान की वीर नारियों के बलिदान की

कर्मभूमि
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