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मेरा बालक भी जैसे दौड़ता चला आता था। आखिर मैं आगे न जा सकी। दुनिया हँसती है, हँसे, बिरादरी मुझे निकालती है, निकाल दे, मैं अपने लाल को छोड़कर न जाऊँगी। मेहनत-मजूरी करके भी तो अपना निबाह कर सकती हूँ। अपने लाल को आँखों से देखती तो रहूँगी। उसे मेरी गोद से कौन छीन सकता है। मैं उसके लिए मरी हूं, मैंने उसे अपने रक्त से सिरजा है। वह मेरा है। उस पर किसी का अधिकार नहीं।

ज्यों ही लखनऊ आया, मैं गाड़ी से उतर पड़ी। मैंने निश्चय कर लिया, लौटती हुई गाड़ी से काशी चली जाऊँगी। जो कुछ होना होगा, होगा।

मैं कितनी देर प्लैटफार्म पर खड़ी रही, मालूम नहीं। बिजली की बत्तियों से सारा स्टेशन जगमगा रहा था। मैं बार-बार कुलियों से पूछती थी, काशी की गाड़ी कब आयेगी? कोई दस बजे मालूम हुआ, गाड़ी आ रही है। मैंने अपना सामान सँभाला। दिल धड़कने लगा। गाड़ी आ गयी। मुसाफ़िर चढ़ने-उतरने लगे। कुली ने आकर कहा--असबाब जनाने डब्बे में रखूँ, कि मरदाने में।

मेरे मुँह से आवाज़ न निकली।

कुली ने मेरे मुँह की ओर ताकते हुए फिर पूछा--जनाने डब्बे में रख दूं असबाब ?

मैंने कातर होकर कहा--मैं इस गाड़ी से न जाऊँगी।

'अब दूसरी गाड़ी दस बजे दिन को मिलेगी।'

'मैं उसी गाड़ी से जाऊँगी।'

'तो असबाब बाहर ले चलूँ या मुसाफिरखाने में?'

'मुसाफिरखाने में।'

अमर ने पूछा--तुम उस गाड़ी से चली क्यों न गयीं?

मुन्नी काँपते हुए स्वर में बोली--न जाने कैसा मन होने लगा। जैसे कोई मेरे हाथ-पाँव बाँधे लेता हो। जैसे मैं गऊ-हत्या करने जा रही हूँ। इन कोढ़ भरे हाथों से मैं अपने लाल को कैसे उठाऊँगी। मुझे अपने पति पर क्रोध आ रहा था। वह मेरे साथ आया क्यों नहीं ? अगर उसे मेरी परवाह होती, तो मुझे अकेली आने देता? इसी गाड़ी से वह भी आ सकता था। जब उसकी इच्छा नहीं है, तो मैं भी न जाऊँगी। और न जाने कौन-कौन-सी

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