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बातें मन में आकर मुझे जैसे बल-पूर्वक रोकने लगीं। मैं मुसाफिरखाने में मन मारे बैठी थी कि एक मर्द अपनी औरत के साथ आकर मेरे ही समीप दरी बिछाकर बैठ गया। औरत की गोद में लगभग एक साल का बालक था। ऐसा सुन्दर बालक ! ऐसा गुलाबी रंग, ऐसी कटोरे-सी आँखें, ऐसी मक्खन-सी देह ! मैं तन्मय होकर देखने लगी और अपने पराये की सूधि भूल गयी। ऐसा मालूम हुआ, यह मेरा है। बालक माँ की गोद से उतरकर धीरे-धीरे रेंगता हुआ मेरी ओर आया। मैं पीछे हट गयी। बालक फिर मेरी तरफ चला। मैं दूसरी ओर चली गयी। बालक ने समझा, मैं उसका अनादर कर रही हूँ। रोने लगा। फिर भी मैं उसके पास न आयी। उसकी माता ने मेरी ओर रोप-भरी आँखों से देखकर बालक को दौड़कर उठा लिया; पर बालक मचलने लगा और बार-बार मेरी ओर हाथ बढ़ाने लगा। पर मैं दूर खड़ी रही। ऐसा जान पड़ता था, मेरे हाथ कट गये हैं। जैसे मेरे हाथ लगाते ही वह सोने-सा बालक कुछ और हो जायगा, उसमें से कुछ निकल जायगा।

स्त्री ने कहा--लड़के को जरा उठा लो देवी, तुम तो जैसे भाग रही हो। जो दुलार करते हैं, उनके पास तो अभागा जाता नहीं, जो मुँह फेर लेते हैं, उनकी ओर दौड़ता है।

बाबूजी, मैं तुमसे नहीं कह सकती, कि इन शब्दों ने मेरे मन को कितनी चोट पहुँचायी। कैसे समझा दूं कि मैं कलंकिनी हूँ, पापिष्ठा हूँ, मेरे छूने से अनिष्ट होगा, अमङ्गल होगा। और यह जानने पर क्या वह मुझसे फिर अपना बालक उठा लेने को कहेगी ?

मैंने समीप आकर बालक की ओर स्नेह भरी आँखों से देखा और डरते-डरते उसे उठाने के लिए हाथ बढ़ाया। सहसा बालक चिल्लाकर माँ की तरफ़ भागा, मानो उसने कोई भयानक रूप देख लिया। अब सोचती हूँ, तो समझ में आता है--बालकों का यही स्वभाव है; पर उस समय मुझे ऐसा मालम हुआ कि सचमच मेरा रूप पिशाचिनी का-सा होगा। मैं लज्जित हो गयी।

माता ने बालक से कहा--अब जाता क्यों नहीं रे, बुला तो रही हैं। कहां जाओगी बहन ? मैंने हरिद्वार बता दिया। वह स्त्री-पुरुष भी हरिद्वार

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