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रहे थे।

गाड़ी छूट जाने के कारण ठहर गये थे। घर दूर था। लौटकर न जा सकते थे। मैं बड़ी खुश हुई, कि हरिद्वार तक साथ तो रहेगा; लेकिन फिर वह बालक मेरी ओर न आया।

थोड़ी देर में स्त्री-पुरुष तो सो गये, पर मैं बैठी रही। माँ से चिमटा हुआ बालक भी सो रहा था। मेरे मन में बड़ी प्रबल इच्छा हुई कि बालक को उठाकर प्यार करूँ; पर दिल काँप रहा था कि कहीं बालक रोने लगे, या माता जाग जाये, तो दिल में क्या समझे। मैं बालक का फुल-सा मुखड़ा देख रही थी। वह शायद कोई स्वप्न देखकर मुसकरा रहा था। मेरा दिल काबू से बाहर हो गया। मैंने सोते हुए बालक को छाती से लगा लिया पर दूसरे ही क्षण मैं सचेत हो गयी और बालक को लिटा दिया। उस क्षणिक प्यार में कितना आनन्द था! जान पड़ता था, मेरा ही बालक यह रूप धरकर मेरे पास आ गया है।

देवीजी का हृदय बड़ा कठोर था। बात-बात पर उस नन्हें से बालक को झिड़क देतीं, कभी-कभी मार बैठती थीं। मुझे उस वक्त ऐसा क्रोध आता था, कि उन्हें खूब डाटूँ। अपने बालक पर माता इतना क्रोध कर सकती है, यह मैने आज ही देखा।

जब दूसरे दिन हम लोग हरिद्वार की गाड़ी में बैठे, तो बालक मेरा हो चुका था! मैं तुमसे क्या कहूँ बाबूजी, मेरे स्तनों में दुघ भी उतर आया और माता को मैंने इस भार से भी मुक्त कर दिया।

हरिद्वार में हम लोग एक धर्मशाले में ठहरे। मैं बालक के मोह-फांस में बँधी हुई उस दम्पती के पीछे-पीछे फिरा करती। मैं अब उसकी लौंडी थी। बच्चे का मल-मूत्र धोना मेरा काम था, उसे दूध पिलाती, खिलाती। माता का जैसे गला छूट गया लेकिन मैं इस सेवा में मगन थी। देवीजी जितनी आलसिन और घमंडिन थीं, लालाजी उतने ही शीलवान् और दयालु थे। वह मेरी तरफ कभी आँख उठाकर भी न देखते। अगर मैं कमरे में अकेली होती तो कभी अन्दर न जाते। कुछ-कुछ तुम्हारे ही जैसा स्वभाव था। मुझे उन पर दया आती थी। उस कर्कशा के साथ उनका जीवन इस तरह कट रहा था, मानो बिल्ली के पंजे में चूहा हो। वह उन्हें बात-बात पर झिड़कती। बेचारे खिसियाकर रह जाते।

कर्मभूमि १७९