पन्द्रह दिन बीत गये थे। देवी जो ने घर लौटने के लिए कहा। बाबूजी अभी वहाँ कुछ दिन और रहना चाहते थे। इसी बात पर तकरार हो गई। मैं बरामदे में बालक को लिये खड़ी थी। देवीजी ने गरम होकर कहा, तुम्हें रहना हो तो रहो, मैं आज जाऊँगी। तुम्हारी आँखों रास्ता नहीं देखा है।
पति ने डरते-डरते कहा--यहाँ दस-पाँच दिन रहने में हरज ही क्या है ? मुझे तो तुम्हारे स्वास्थ्य में अभी कोई तबदीली नहीं दिखती।
'आप मेरे स्वास्थ्य की चिन्ता छोड़िए। मैं इतनी जल्द नहीं मरी जा रही हूँ। सच कहते हो, तुम मेरे स्वास्थ्य के लिए यहाँ ठहरना चाहते हो ?'
'और किसलिए आया था?'
'आये चाहे जिस काम के लिए हो; पर तुम मेरे स्वास्थ्य के लिए नहीं ठहर रहे हो। यह पट्टियाँ उन स्त्रियों को पढ़ाओ, जो तुम्हारे हथकण्डे न जानती हों। मैं तुम्हारी नस नस पहचानती हूँ। तुम ठहरना चाहते हो विहार के लिए क्रीड़ा के लिए......'
बाबूजी ने हाथ जोड़कर कहा--अच्छा, अब रहने दो बिन्नी, कलंकित न करो। मैं आज ही चला जाऊँगा।
देवीजी इतनी सस्ती विजय पाकर प्रसन्न न हुई, अभी उनके मन का गुबार तो निकलने ही नहीं पाया था। बोली--हाँ, चले क्यों न चलोगे, यही तो तुम चाहते थे। यहां पैसे खर्च होते हैं न ? ले जाकर उसी काल कोठरी में डाल दो। कोई मरे या जिये, तुम्हारी बला से। एक मर जायगी, तो दूसरी फिर आ जायगी, बल्कि और नई-नवेली। तुम्हारी चाँदी ही चाँदी है ! सोचा था, यहाँ कुछ दिन रहूँगी; पर तुम्हारे मारे कहीं रहने पाऊँ? भगवान् भी नहीं उठा लेते कि गला छूट जाय !
अमर ने पूछा--उन बाबूजी ने सचमुच कोई शरारत की थी, या मिथ्या आरोप था ?
मुन्नी ने मुँह फेरकर मुसकराते हुए कहा--लाला, तुम्हारी समझ बड़ी मोटी है। वह डायन मुझ पर आरोप कर रही थी। बेचारे बाबूजी दबे जाते थे, कि कहीं वह चुड़ैल बात खोलकर न कह दे, हाथ जोड़ते थे, मिन्नतें करते थे; पर वह किसी तरह रास न होती थी।
आँखें मटकाकर बोली--भगवान् ने मुझे भी आँखें दी हैं, अन्धी नहीं