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हूँ। मैं तो कमरे में पड़ी-पड़ी कराहूँ और तुम बाहर गुलछरें उड़ाओ ! दिल बहलाने को कोई शगल चाहिए।

धीरे-धीरे मुझ पर रहस्य खुलने लगा। मन में ऐसी ज्वाला उठी कि अभी इसका मुँह नोच लूँ। मैं तुमसे कोई परदा नहीं रखती लाला, मैंने बाबूजी की ओर कभी आँख उठाकर देखा भी न था; पर यह चुड़ैल मुझे कलंक लगा रही थी। बाबूजी का लिहाज न होता, तो मैंने उस चुड़ैल का मिजाज ठीक कर दिया होता। जहाँ सुई न चुभे, वहाँ फाल चुभाये देती थी।

आखिर बाबूजी को भी क्रोध आया !

'तुम बिलकुल झूठ बोलती हो। सरासर झूठ।'

'मैं सरासर झूट बोलतो हूँ ?'

'हाँ, सरासर झूठ बोलती हो।'

'खा जाओ अपने बेटे की क़सम।'

मुझे चुपचाप वहाँ से टल जाना चाहिए था, लेकिन अपने मन को क्या करूँ, जिससे अन्याय नहीं देखा जाता। मेरा चेहरा मारे क्रोध के तमतमा उठा। मैंने उसके सामने जाकर कहा--बहुजी, बस अब जबान बन्द करो, नहीं तो अच्छा न होगा। मैं तरह देती जाती हूँ और तुम सिर चढ़ती जाती हो। मैं तुम्हें शरीफ़ समझकर तुम्हारे साथ ठहर गयी थी। अगर जानती कि तुम्हारा स्वभाव इतना नीच है, तो तुम्हारी परछाई से भागती। मैं हरजाई नहीं हूँ, न अनाथ हूँ, भगवान की दया से मेरे भी पति हैं। किस्मत का खेल है कि यहाँ अकेली पड़ी हूँ। मैं तुम्हारे पति को अपने पति का पैर धोने के जोग भी नहीं समझती। मैं उसे बुलाये देती हूँ, तुम भी देख लो, बस आज और कल रह जाओ।

अभी मेरे मुँह से पूरी बात भी न निकलने पायी थी कि मेरे स्वामी मेरे लाल को गोद में लिये आकर आँगन में खड़े हो गये और मुझे देखते ही लपककर मेरी तरफ़ चले। मैं उन्हें देखते ही ऐसी घबड़ा गयी, मानो कोई सिंह आ गया हो, तुरंत अपनी कोठरी में जाकर भीतर से द्वार बन्द कर लिया। छाती धड़-धड़ कर रही थी; पर किवाड़ की दरार में आँख लगाये देख रही थी। स्वामी का चेहरा सँवलाया हआ था, बालों पर धुल जमी

कर्मभूमि
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