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हुई थी, पीठ पर कम्बल और लुटिया-डोर रखे, हाथ में लंबा लट्ठ लिये भौचक्के से खड़े थे।

बाबूजी ने बाहर आकर स्वामी से पूछा--अच्छा आप ही इनके पति हैं। आप खूब आये। अभी तो वह आप ही की चर्चा कर रही थीं। आइए, कपड़े उतारिए। मगर बहन भीतर क्यों भाग गयीं। यहां परदे में कौन परदा।

मेरे स्वामी को तो तुमने देखा ही है। उनके सामने बाबूजी बिल्कुल ऐसे लगते थे, जैसे साँड़ के सामने नाटा बैल।

स्वामी ने बाबूजी को कोई जवाब न दिया, मेरे द्वार पर आकर बोले--मुन्नी, यह क्या अन्धेर करती हो। मैं तीन दिन से तुम्हें खोज रहा हैं। आज मिली भी तो भीतर जा बैठी। ईश्वर के लिए किवाड़ खोल दो और मेरी दुःख कथा सुन लो, फिर तुम्हारी जो इच्छा हो करना।

मेरी आँखों से आँसू बह रहे थे। जी चाहता था, किवाड़ खोलकर बच्चे को गोद में ले लूं।

पर न जाने मन के किसी कोने में कोई बैठा हुआ कह रहा था--खबरदार, जो बच्चे को गोद में लिया ! जैसे कोई प्यास से तड़पता हुआ आदमी पानी का बरतन देखकर टूटे; पर कोई उससे कह दे, पानी जूठा है। एक मन कहता था, स्वामी का अनादर मत कर, ईश्वर ने जो पत्नी और माता का नाता जोड़ दिया है, वह क्या किसी के तोड़े टूट सकता है ! दूसरा मन कहता था, तू अब अपने पति को पति और पुत्र को पुत्र नहीं कह सकती। क्षणिक मोह के आवेश में पड़कर तू क्या उन दोनों को कलंकित कर देगी !

मैं किवाड़ छोड़कर खड़ी हो गयी।

बच्चे ने किवाड़ को अपनी नन्हीं-नन्हीं हथेलियों से पीछे ढकेलने के लिए, जोर लगाकर कहा--तेवाल थोलो !

यह तोतले बोल कितने मीठे थे ! जैसे सन्नाटे में किसी शंका से भयभीत होकर हम गाने लगते हैं, अपने ही शब्दों से दुकेले होने की कल्पना कर लेते हैं, मैं भी इस समय अपने उमड़ते हुए प्यार को रोकने के लिए बोल उठी--तुम क्यों मेरे पीछे पड़े हो ? क्यों नहीं समझ लेते कि मर गई ? तुम ठाकुर होकर भी इतने दिल के कच्चे हो ! एक तुच्छ नारी के लिए अपनी कुलमरजाद डुबाये देते हो। जाकर अपना ब्याह कर लो और बच्चे को पालो।

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कर्मभूमि