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इस जीवन में मेरा तुमसे कोई नाता नहीं है। हाँ, भगवान् से यही माँगती हूँ, कि दूसरे जन्म में तुम फिर मुझे मिलो। क्यों मेरी टेक तोड़ रहे हो, मेरे मन को क्यों मोह में डाल रहे हो ? पतिता के साथ तुम सुख से न रहोगे। मुझ पर दया करो, आज ही चले जाओ, नहीं मैं सच कहती हूँ, जहर खा लूँगी।

स्वामी ने करुण आग्रह से कहा- मैं तुम्हारे लिए अपनी कुल-मर्यादा; भाई बन्द सब कुछ छोड़ दूँगा। मुझे किसी की परवाह नहीं है। घर में आग लग जाय, मुझे चिन्ता नहीं। मैं या तो तुम्हें लेकर जाऊँगा, या यहीं गंगा में डूब मरूँगा। अगर मेरे मन में तुमसे रत्ती भर भी मैल हो, तो भगवान् मुझे सौ बार नरक दें। अगर तुम्हें नहीं चलना है, तो तुम्हारा बालक तुम्हें सौंपकर मैं जाता हूँ। इसे मारो या जिलाओ, मैं फिर तुम्हारे पास न आऊँगा। अगर कभी सुधि आये, तो चुल्लू भर पानी देना।

लाला, सोचो, मैं कितने बड़े संकट में पड़ी हुई थी। स्वामी बात के धनी है, यह मैं जानती थी। प्राण को वह कितना तुच्छ समझते हैं, यह भी मुझसे छिपा न था। फिर भी मैं अपना हृदय कठोर किये रही। ज़रा भी नर्म पड़ी और सर्वनाश हुआ। मैंने पत्थर का कलेजा बनाकर कहा- अगर तुम बालक को मेरे पास छोड़कर गये, तो उसकी हत्या तुम्हारे ऊपर होगी, क्योंकि मैं उसकी दुर्गति देखने के लिए जीना नहीं चाहती। उसके पालने का भार तुम्हारे ऊपर है, तुम जानो, तुम्हारा काम जाने। मेरे लिए जीवन में अगर कोई सुख था, तो यही कि मेरा पुत्र और स्वामी कुशल से हैं। तुम मुझसे यह सुख छीन लेना चाहते हो, छीन लो; मगर याद रखो वह मेरे जीवन का आधार है।

मैंने देखा स्वामी ने बच्चे को उठा लिया, जिसे एक क्षण पहले गोद से उतार दिया था और उलट पाँव लौट पड़े। उनकी आँखों से आँसू जारी थे, और ओंठ काँप रहे थे।

देवीजी ने भलमनसी से काम लेकर स्वामी को बैठाना चाहा, पूछने लगीं- क्या बात है, क्यों रूठी हुई हैं; पर स्वामी ने कोई जवाब न दिया। बाबू साहब फाटक तक उन्हें पहुँचाने गये‌। कह नहीं सकती, दोनों जनों में क्या बातें हुई; अनुमान करती हूँ, कि बाबूजी ने मेरी प्रशंसा की होगी। मेरा दिल अब भी काँप रहा था कि कहीं स्वामी सचमुच आत्मघात न कर लें।

कर्मभूमि १८३