देवियों और देवताओं की मनौतियां कर रही थी कि मेरे प्यारे की रक्षा करना।
ज्यों ही बाबूजी लौट, मैंने धीरे से किवाड़ खोलकर पूछा--किधर गये? कुछ और कहते थे?
बाबूजी ने तिरस्कार--भरी आँखों से देखकर कहा--कहतें क्या, मुँह से आवाज़ भी तो निकले। हिचकी बँधी हुई थी। अबसे कुशल है, जाकर रोक लो। वह गंगाजी की ओर ही गये हैं। तुम इतनी दयावान् होकर भी इतनी कठोर हो, यह आज ही मालूम हुआ। ग़रीब, बच्चों की तरह फूट-फूटकर रो रहा था।
मैं संकट की उस दशा को पहुँच चुकी थी, जब आदमी परायों को अपना समझने लगता है। डाँटकर बोली--तब भी तुम दौड़े यहाँ चले आये ? उनके साथ कुछ देर रह जाते, तो छोटे न हो जाते और न यहाँ देवीजी को कोई उठा ले जाता। इस समय वह आपे में नहीं हैं, फिर भी तुम उन्हें छोड़कर भागे चले आये।
देवीजी बोली--यहाँ न दौड़ आते तो क्या जाने मैं कहीं निकल भागती। लो, आकर घर में बैठो। मैं जाती हूँ। पकड़कर घसीट न लाऊँ, तो अपने बाप की नहीं!
धर्मशाले में बीसों ही यात्री टिके हुए थे। सब अपने-अपने द्वार पर खड़े यह तमाशा देख रहे थे। देवीजी ज्यों ही निकलीं, चार पाँच आदमी उनके साथ हो लिये। आध घण्टे में सभी लौट आये। मालूम हुआ कि वह स्टेशन की तरफ़ चले गये।
पर मैं जब तक उन्हें गाड़ी पर सवार होते न देख लूँ चैन कहाँ। गाड़ी प्रातःकाल जायगी। रात-भर वह स्टेशन पर रहेंगे। ज्यों ही अँधेरा हो गया, मैं स्टेशन जा पहुँची। वह एक वृक्ष के नीचे कम्बल बिछाये बैठे हुए थे। मेरा बच्चा लोटे की गाड़ी बनाकर डोर से खींच रहा था ! बार-बार गिरता था और फिर उठकर खींचने लगता था। मैं एक वृक्ष की आड़ में बैठकर यह तमाशा देखने लगी। तरह-तरह की बातें मन में आने लगीं। बिरादरी का ही तो डर है। मैं अपने पति के साथ किसी दूसरी जगह रहने लगूँ, तो बिरादरी क्या कर लेगी; लेकिन क्या अब मैं वह हो सकती हूँ, जो पहले थी?
१८४ | कर्मभूमि |