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एक क्षण के बाद फिर वही कल्पना। स्वामी ने साफ़ कहा है, उनका दिल साफ़ है। बातें बनाने की उनकी आदत नहीं। तो वह कोई ऐसी बात कहेंगे ही क्यों जो मुझे लगे। गड़े मुरदे उखाड़ने की उनकी आदत नहीं। वह मुझसे कितना प्रेम करते थ़े। अब भी उनका हृदय वही है। मैं व्यर्थ के संकोच में पड़कर उनका और अपना जीवन चौपट कर रही हूँ। लेकिन . . . लेकिन मैं अब क्या वह हो सकती हूँ, जो पहले थी? नहीं, अब मैं वह नहीं हो सकती।

पतिदेव अब मेरा पहिले से अधिक आदर करेंगे। मैं जानती हूँ। मैं घी का घड़ा भी लुढ़का दूँगी, तो कुछ न कहेंगे। वह उतना ही प्रेम भी करेंगे; लेकिन यह बात कहाँ, जो पहले थी। अब तो मेरी दशा उस रोगिणी की-सी होगी, जिसे कोई भोजन रुचिकर नहीं होता।

तो फिर मैं जिन्दा ही क्यों रहूँ? जब जीवन में कोई सुख नहीं, कोई अभिलाषा नहीं, तो वह व्यर्थ है। कुछ दिन और रो लिया; तो इससे क्या। कौन जानता है, क्या-क्या कलंक सहने पड़ें, क्या-क्या दुर्दशा हो। मर जाना कहीं अच्छा।

यह निश्चय करके मैं उठी। सामने ही पतिदेव सो रहे थे। बालक भी पड़ा सोता था। ओह ? कितना प्रबल बन्धन था। जैसे सूम का धन हो। वह उसे खाता नहीं, देता नहीं, इसके सिवा उसे और क्या संतोष है कि उसके पास धन है। इस बात से ही उसके मन में कितना बल आ जाता है। मैं उसी मोह को तोड़ने जा रही थी।

मैं डरते-डरते, जैसे प्राणों को आँखों में लिये, पतिदेव के समीप गई; पर वहाँ एक क्षण भी खड़ी न रह सकी। जैसे लोहा खिंचकर चुम्बक से जा चिमटता है, उसी तरह मैं उनके मुख की ओर खिंची जा रही थी। मैंने अपने मन का सारा बल लगाकर उसका मोह तोड़ दिया और उसी आवेश में दौड़ी हुई गंगा के तट पर आई। मोह अब भी मन से चिपटा हुआ था। मैं गंगा में कूद पड़ी।

अमर ने कातर होकर कहा--अब नहीं सुना जाता मुन्नी। फिर कभी कहना।

मुन्नी मुसकराकर बोली--वाह, अब रह ही क्या गया ? मैं कितनी देर पानी में रही, कह नहीं सकती। जब होश आया, तो इसी घर में पड़ी हुई थी।

कर्मभूमि १८५