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बोला--मुझे डिग्री इतनी प्यारी नहीं है कि उसके लिए ससुराल की रोटियाँ तोड़ूँ। अगर मैं अपने परिश्रम से धनोपार्जन करके पढ़ सकूँगा, तो पढूँगा, नहीं कोई धन्धा देखूँगा। मैं अब तक व्यर्थ ही शिक्षा के मोह में पड़ा हुआ था। कालेज के बाहर भी अध्ययन-शील आदमी बहुत-कुछ सीख सकता है। मैं अभिमान नहीं करता, लेकिन साहित्य और इतिहास की जितनी पुस्तकें इन दो-तीन सालों में मैंने पढ़ी है शायद ही मेरे कालेज में किसी ने पढ़ी हों।

सुखदा ने इस अप्रिय विषय का अन्त करने के लिए कहा--अच्छा नाश्ता तो कर लो। आज तो तुम्हारी मीटिंग है। नौ बजे के पहले क्यों लौटने लगे। मैं तो टाकी में जाऊँगी। अगर तुम ले चलो, तो मैं तुम्हारे साथ चलने को तैयार हूँ।

अमर ने रूखेपन से कहा--मुझे टाकी में जाने की फुरसत नहीं है। तुम जा सकती हो।

'फिल्मों से भी बहुत-कुछ लाभ उठाया जा सकता है

'तो मैं तुम्हें मना तो नहीं करता।'

'तुम क्यों नहीं चलते?'

'जो आदमी कुछ उपार्जन न करता हो, उसे सिनेमा देखने का कोई अधिकार नहीं। मैं उसी सम्पत्ति को अपनी समझता हूँ, जिसे मैंने अपने परिश्रम से कमाया हो।'

कई मिनट तक दोनों गुम बैठे रहे। जब अमर जलपान करके उठा, तो सुखदा ने सप्रेम आग्रह से कहा--कल से सन्ध्या समय दूकान पर बैठा करो। कठिनाइयों पर विजय पाना पुरुषार्थी मनुष्यों का काम है अवश्य; मगर कठिनाइयों की सृष्टि करना, अनायास पाँव में काँटे चुभाना कोई बुद्धिमानी नहीं है।

अमरकान्त इस उपदेश का आशय समझ गया ; पर कुछ बोला नहीं। विलासिनी संकटों से कितना डरती है ! यह चाहती है, मैं भी गरीबों का खून चूसूं, उनका गला काटूं; यह मुझसे न होगा।

सुखदा उसके दृष्टिकोण का समर्थन करके कदाचित् उसे जीत सकती थी। उधर से हटाने की चेष्टा करके वह उसके संकल्प को और भी दृढ़ कर

कर्मभूमि
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