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गये। फिर हरिद्वार आये, पर अबकी बालक उनके साथ न था। कोई पूछता--तुम्हारा लड़का क्या हुआ, तो हँसने लगते। जब मैं अच्छी हो गयी और चलने-फिरने लगी, तो एक दिन जी में आया, हरिद्वार जाकर देखूँ, मेरी चीज़ें कहाँ गयीं। तीन महीने से ज्यादा हो गये थे। मिलने की आशा तो न थी; पर इसी बहाने स्वामी का कुछ पता लगाना चाहती थी। विचार था--एक चिट्ठी लिखकर छोड़ दूँ। उस धर्मशाले के सामने पहुँची, तो देखा, बहुत से आदमी द्वार पर जमा है। मैं भी चली गयी। एक आदमी की लाश थी। लोग कह रहे थे वही पागल है, वही जो अपनी बीबी को खोजता फिरता था। मैं पहचान गयी। वही मेरे स्वामी थे। यह सब बातें महल्ले वालों से मालूम हुई। छाती पीटकर रह गयी। जिस सर्वनाश से डरती थी, वह हो ही गया। जानती, कि यह होने वाला है तो पति के साथ ही न चली जाती! ईश्वर ने मझे दोहरी सजा दी; लेकिन आदमी बड़ा बेहया है। अब मरते भी न बना। किसके लिए मरती? खाती-पीती भी हूँ, हँसती-बोलती भी हूँ, जैसे कुछ हुआ ही नहीं। बस यही मेरी राम कहानी है।

कर्मभूमि
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