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लाला समरकान्त की जिन्दगी के सारे मंसूबे धूल में मिल गये। उन्होंने कल्पना की थी कि जीवन-संध्या में अपना सर्वस्व बेटे को सौंपकर और बेटी का विवाह करके किसी एकान्त में बैठकर भगवत्-भजन में विश्राम लेंगे, लेकिन मन की मन में ही रह गई। यह मानी हुई बात थी, कि वह अन्तिम साँस तक विश्राम लेने वाले प्राणी न थे। लड़के को बढ़ते देखकर उनका हौसला और बढ़ता, लेकिन कहने को हो गया। बीच में अमर कुछ ढरें पर आता हुआ जान पड़ता था, लेकिन जब उसकी बुद्धि ही भ्रष्ट हो गई, तो अब उससे क्या आशा की जा सकती थी। अमर में और चाहे जितनी बुराइयां हों उसके चरित्र के विषय में कोई सन्देह न था, पर कुसंगति में पड़कर उसने धर्म भी खोया, चरित्र भी खोया, और कुल मर्यादा भी खोई। लाला जी कुत्सित सम्बन्ध को बहुत बुरा न समझते थे। रईसों में यह प्रथा प्राचीन काल से चली आती है। वह रईस ही क्या, जो इस तरह का खेल न खेले, लेकिन धर्म छोड़ने को तैयार हो जाना, खुले खजाने समाज की मर्यादाओ को तोड़ डालना यह तो पागलपन है, बल्कि गधापन।
समरकान्त का व्यावहारिक जीवन उनके धार्मिक जीवन से बिल्कुल अलग था। व्यवहार और व्यापार में वह धोखा-धड़ी, छल-प्रपंच, सब कुछ क्षम्य समझते थे। व्यापार-नीति में सन या कपास में कचरा भर देना, घी में आलू या घुइयाँ गबड़ देना, औचित्य से बाहर न था, पर बिना स्नान किये वह मुंह में पानी न डालते थे। इन चालीस वर्षों में ऐसा शायद ही कोई दिन हुआ हो, कि उन्होंने सन्ध्या-समय की आरती न ली हो और तुलसी-दल माथे पर न चढ़ाया हो। एकादशी को बराबर निर्जल व्रत रखते थे। सारांश यह कि उनका धर्म आडम्बर-मात्र था, जिसका उनके जीवन से कोई प्रयोजन न था।
सलीम के घर से लौटकर पहला काम जो लाला ने किया, वह सुखदा को
कर्मभूमि | १९१ |