फटकारना था। इसके बाद नैना की बारी आयो। दोनों को रुलाकर वह अपने कमरे में गये और खुद रोने लगे।
रातोरात यह खबर सारे शहर में फैल गयी। तरह-तरह की मिस्कौट होने लगी। समरकान्त दिन भर घर से नहीं निकले। यहाँ तक कि आज गंगा-स्नान करने भी न गये। कई असामी रुपये लेकर आये। मुनीम तिजोरी की कुंजी माँगने गया। लालाजी ने ऐसा डाँटा कि वह चुपके से बाहर निकल आया। असामी रुपये लेकर लौट गये।
खिदमतगार ने चाँदी का गड़गड़ा लाकर सामने रख दिया। तंबाकू जल गया, लालाजी ने निगाली भी मुँह में न ली।
दस बजे सुखदा ने आकर कहा--आप क्या भोजन कीजिएगा?
लालाजी ने उसे कठोर आँखों से देखकर कहा--मुझे भूख नहीं हैं।
सुखदा चली गयी। दिन भर किसी ने कुछ न खाया।
नौ बजे रात को नैना ने आकर कहा--दादा, आरती में न जाइएगा?
लालाजी चौंके--हाँ हाँ, जाऊँगा क्यों नहीं। तुम लोगों ने कुछ खाया कि नहीं?
नैना बोली--किसी की इच्छा ही न थी। कौन खाता?
'तो क्या उसके पीछे सारा घर प्राण देगा?'
सुखदा इसी समय तैयार होकर आ गयी। बोली--जब आप ही प्राण दे रहे हैं, तो दूसरों पर बिगड़ने का आपको क्या अधिकार है?
लालाजी चादर ओढ़कर जाते हुए बोले--मेरा क्या बिगड़ा है कि में प्राण दूँ। यहाँ था, तो मुझे कौन-सा सुख देता था। मैंने तो बेटे का सुख ही नहीं जाना। तब भी जलाता था, अब भी जला रहा है। चलो भोजन बनाओ मैं आकर खाऊँगा, जो गया उसे जाने दो। जो हैं उन्हीं को उस जानेवाले की कसर पूरी करनी है। मैं क्यो प्राण देने लगा। मैंने पुत्र को जन्म दिया। उसका विवाह भी मैने किया। सारी गृहस्थी मैंने बनायी। इसके चलाने का भार मुझ पर है। मुझे अब बहुत दिन जीना है। मगर मेरी समझ में यह बात नहीं आती कि इस लौंडे को यह सूझी क्या? पठानिन की पोती अप्सरा नहीं हो सकती। फिर उसके पीछे वह क्यों इतना लट्टू हो गया? उसका तो ऐसा स्वभाव न था। इसी को भगवान् की लीला कहते हैं।
१९२ | कर्मभूमि |