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वह चलने लगे, तो ब्रह्मचारी जी बोले--लालाजी, अबकी यहाँ श्री वाल्मीकीय कथा का विचार है।

लालाजी ने पीछे फिरकर कहा--हाँ हाँ, होने दो।

एक बाबू साहब ने कहा--यहाँ तो किसी में इतना सामर्थ्य नहीं है।

समरकान्त ने उत्साह से कहा--हाँ हाँ, मैं उसका सारा भार लेने को तैयार हूँ। भगवद् भजन से बढ़कर धन का सदुपयोग और क्या होगा?

उनका यह उत्साह देखकर लोग चकित हो गये। वह कृपण थे और किसी धर्मकार्य में अग्रसर न होते थे। लोगों ने समझा था, इससे दस-बीस रुपये ही मिल जायँ तो बहुत है ! उन्हें यों बाजी मारते देखकर और लोग भी गरमाये।

सेठ धनीराम ने कहा--आपसे सारा भार लेने को नहीं कहा जाता लालाजी ! आप लक्ष्मीपात्र हैं सही; पर औरों को भी तो श्रद्धा है। चन्दे से होने दीजिए।

समरकान्त बोले--तो और लोग आपस में चन्दा कर लें। जितनी कमी रह जायगी, वह मैं पूरी कर दूँगा।

धनीराम को भय हुआ, कहीं, यह महाशय सस्ते न छूट जायँ। बोले--यह नहीं, आपको जितना लिखना हो लिख दें।

समरकान्त ने होड़ के भाव से कहा--पहले आप लिखिए।

काग़ज़, क़लम, दावात लाया गया। धनीराम ने लिखा १०१)

समरकान्त ने ब्रह्मचारी जी से पूछा--आपके अनुमान से कुल कितना खर्च होगा?

ब्रह्मचारी जी का तख़मीना एक हजार का था।

समरकान्त ने ८९९) लिख दिये, और वहाँ से चल दिये। सच्ची श्रद्धा की कमी को वह धन से पूरा करना चाहते थे। धर्म की क्षति जिस अनुपात से होती है, उसी अनुपात से आडम्बर की वृद्धि होती है।


अमरकान्त का पत्र लिये हुए नैना अन्दर आयी, तो सुखदा ने पूछा--किसका पत्र है?

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कर्मभूमि