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पृष्ठ:कर्मभूमि.pdf/२००

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वहाँ कोई दूसरा शिकार फाँस लिया होगा। उससे मिलने की उसे बड़ी इच्छा थी, पर सोच कर रह जाती थी।

एक दिन पठानिन से मालूम हुआ कि सकीना बहुत बीमार है। उस दिन सुखदा ने उससे मिलने का निश्चय कर लिया। नैना को भी साथ ले लिया। पठानिन ने रास्ते में कहा--मेरे सामने तो उसका मुँह ही बन्द हो जायगा। मुझसे तो तभी से बोल-चाल नहीं है। मैं तुम्हें घर दिखाकर कहीं चली जाऊँगी। ऐसी अच्छी शादी हो रही थी, इसने मंजूर ही न किया। मैं भी चुप हूँ, देखूँ कब तक उसके नाम को बैठी रहती है। मेरे जीते-जी तो लाला घर में क़दम रखने न पायेंगे। हाँ, पीछे की नहीं कह सकती।

सुखदा ने छेड़ा--किसी दिन उनका खत आ जाय और सकीना चली जाय, तो क्या करोगी?

बुढिया आँखें निकालकर बोली--मजाल है कि इस तरह चली जाय। खून पी जाऊँ।

सुखदा ने फिर छेड़ा--जब वह मुसलमान होने को कहते हैं, तब तुम्हें क्या इन्कार है?

पठानिन ने कानों पर हाथ रखकर कहा--अरे बेटा! जिसका जिन्दगी भर नमक खाया, उसका घर उजाड़कर अपना घर बसाऊँ! यह शरीफ़ों का काम नहीं है। मेरी तो समझ ही में नहीं आता, इस छोकरी में क्या देखकर भैया रीझ पड़े।

अपना घर दिखाकर पठानिन तो पड़ोस के एक घर में चली गयी, दोनों युवतियों ने सकीना के द्वार की कुंडी खटखटाई। सकीना ने उठकर द्वार खोल दिया। दोनों को देखकर वह घबड़ा-सी गयी। जैसे कहीं भागना चाहती है। कहाँ बैठाये, क्या सत्कार करे !

सुखदा ने कहा--तुम परेशान न हो बहन, हम इस खाट पर बैठ जाते हैं। तुम तो जैसे घुलती जाती हो। एक वेवफ़ा मर्द के चकमे में पड़कर क्या जान दे दोगी?

सकीना का पीला चेहरा शर्म से लाल हो गया। उसे ऐसा जान पड़ा कि सुखदा मुझसे जवाब तलब कर रही है--तुमने मेरा बना-बनाया घर क्यों उजाड़ दिया ? इसका सकीना के पास कोई जवाब न था। वह कांड कुछ इस

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