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आकस्मिक रूप से हुआ कि वह स्वयं कुछ न समझ सकी। पहले बादल का एक टुकड़ा आकाश के एक कोने में दिखाई दिया। देखते-देखते सारा आकाश मेघाच्छन्न हो गया और ऐसे ज़ोर की आँधी चली कि वह खुद उसमें उड़ गयी। वह क्या बताये, कैसे क्या हुआ। बादल के उस टुकड़े को देखकर कौन कह सकता था, आँधी आ रही है।

उसने सिर झुकाकर कहा--औरत की ज़िन्दगी और है ही किसलिए बहनजी? वह अपने दिल से लाचार है, जिससे वफ़ा की उम्मीद करती है, वही दग़ा करता है। उसका क्या अख्तियार, लेकिन बेवफ़ाओं से मुहब्बत न हो, तो मुहब्बत में मज़ा ही क्या रहे। शिकवा-शिकायत, रोना-धोना, बेताबी और बेकारी यही तो मुहब्बत के मजे हैं, फिर मैं तो वफ़ा की उम्मीद भी नहीं करती थी। मैं उस वक्त भी इतना जानती थी कि यह आँधी दो-चार घड़ी की मेहमान है, लेकिन मेरी तस्कीन के लिए तो इतना ही काफी था कि जिस आदमी की मैं दिल में सबसे ज्यादा इज्जत करने लगी थी, उसने मुझे इस लायक तो समझा। मैं इस काग़ज़ की नाव पर बैठकर भी सागर को पार कर दूँगी।

सुखदा ने देखा, इस युवती का हृदय कितना निष्कपट है। कुछ निराश होकर बोली--यह तो मरदों के हथकण्डे हैं। पहले तो देवता बन जायेंगे, जैसे सारी शराफ़त इन्हीं पर खतम है, फिर तोतों की तरह आँखें फेर लेंगे।

सकीना ने ढिठाई के साथ कहा--बहन, बनने से कोई देवता नहीं हो जाता। आपकी उम्र चाहे साल-दो-साल मुझसे ज्यादा हो; लेकिन मैं इस मुआमले में आपसे ज्यादा तजरबा रखती हूँ। यह मैं घमण्ड से नहीं कहती, शर्त से कहती हूँ। खुदा न करे, ग़रीब की लड़की हसीन हो। ग़रीबी में हुस्न बला है। वहाँ बड़ों का तो कहना ही क्या, छोटों की रसाई भी आसानी से हो जाती है। अम्मा बड़ी पारसा हैं, मुझे देवी समझती होंगी, किसी जवान को दरवाजे पर खड़ा नहीं होने देतीं, लेकिन इस वक्त बात आ पड़ी है, तो कहना पड़ता है कि मुझे मरदों को देखनें और परखने के काफ़ी मौके मिले हैं। सभी ने मुझे दिल बहलाव की चीज़ समझा और मेरी ग़रीबी से अपना मतलब निकालना चाहा। अगर किसी ने मुझे इज्जत की निगाह से देखा तो वह बाबूजी थे। मैं खुदा को गवाह करके कहती हूँ कि उन्होंने मुझे एक बार भी ऐसी निगाहों से

कर्मभूमि १९७