संसार से प्रतिकार करने के लिए जैसे नंगी तलवार लिये खड़ा रहता है। कभी कभी उसका मन इतना उद्विग्न हो जाता है, कि समाज और धर्म के सारे बन्धनों को तोड़कर फेंक दे। ऐसे आदमियों की सज़ा यही है कि उनकी स्त्रिया भी उन्हीं के मार्ग पर चलें। तब उनकी आँखें खुलेंगी और उन्हें ज्ञात होगा कि जलना किसे कहते हैं। एक मैं कुल-मर्यादा के नाम को रोया करूँ; लेकिन यह अत्याचार बहुत दिनों न चलेगा। अब कोई इस भ्रम में न रहे कि पति चाहे जो करे, उसकी स्त्री उसके पाँव धो-धोकर पियेगी, उसे अपना देवता समझेगी, उसके पाँव दबायेगी और वह उससे हँसकर बोलेगा, तो अपने भाग्य को धन्य मानेगी। वह दिन बदल गये। इस विषय पर उसने पत्रों में कई लेख भी लिखे हैं।
आज नैना बहस कर बैठी--तुम कहती हो, पुरुष के आचार-विचार की परीक्षा कर लेनी चाहिए। क्या परीक्षा कर लेने पर धोखा नहीं होता? आये-दिन तलाक क्यों होते रहते हैं?
सुखदा बोली--तो इसमें क्या बुराई है। यह तो नहीं होता कि पुरुष तो गुलछर्रे उड़ाये और स्त्री उसके नाम को रोती रहे।
नैना ने जैसे रटे हुए वाक्य को दुहराया--प्रेम के अभाव में सुख कभी नहीं मिल सकता। बाहरी रोक-थाम से कुछ न होगा।
सुखदा ने छेड़ा--मालूम होता है, आजकल यह विद्या सीख रही हो। अगर देख-भालकर विवाह करने में कभी-कभी धोखा हो सकता है, तो बिना देखे-भाले करने में बराबर धोखा होता है। तलाक की प्रथा यहां हो जाने दो, फिर मालूम होगा कि हमारा जीवन कितना सूखी है।
नैना इसका कोई जवाब न दे सकी। कल व्यासजी ने पश्चिमी विवाहप्रथा की तुलना भारतीय पद्धति से की थी। वही बातें कुछ उखड़ी-सी उसे याद थीं। बोली--तुम्हें कथा में चलना है कि नहीं, यह बताओ।
'तुम जाओ, मैं नहीं जाती।'
नैना ठाकुरद्वारे में पहुँची, तो कथा आरम्भ हो गयी थी। आज और दिनों से ज्यादा हजूम था। नौजवान सभा और सेवा-पाठशाला के विद्यार्थी और अध्यापक भी आये हुए थे। मधुसूदनजी कह रहे थे--राम-रावण की कथा तो इस जीवन की, इस संसार की कथा है, इसको चाहो, तो सुनना पड़ेगा। न
२०० | कर्मभूमि |