चाहो, तो न सुनना पड़े। इससे हम या तुम बच नहीं सकते। हमारे ही अन्दर राम भी है, रावण भी हैं, सीता भी हैं, आदि. ...
सहसा पिछली सफों में कुछ हलचल मची। ब्रह्मचारीजी कई आदमियों का हाथ पकड़-पकड़ कर उठा रहे थे और जोर-जोर से गालियां दे रहे थे। हंगामा हो गया। लोग इधर-उधर से उठकर वहाँ जमा हो गये। कथा बन्द हो गयी।
समरकान्त ने पूछा--क्या बात है ब्रह्मचारीजी ?
ब्रह्मचारी ने ब्रह्मतेज से लाल लाल आँखें निकालकर कहा--बात क्या है, यहाँ लोग भगवान् की कथा सुनने आते हैं कि अपना धर्म भ्रष्ट करने आते हैं! भंगी, चमार जिसे देखो घुसा चला आता है--ठाकुरजी का मन्दिर न हुआ सराय हुई।
समरकान्त ने कड़ककर कहा--निकाल दो सभों को मारकर !
एक बूढ़े ने हाथ जोड़कर कहा--हम तो यहाँ दरवाजे पर बैठे थे सेठजी, यहाँ जूते रखे हैं। हम क्या ऐसे नादान हैं कि आप लोगों के बीच में जाकर बैठ जाते?
ब्रह्मचारीजी ने उसे एक जूता जमाते हुए कहा--तू यहाँ आया क्यों? यहाँ से वहाँ तक एक दरी बिछी हुई है। सब का सब भरभंड हुआ कि नहीं ? प्रसाद है, चरणामृत है, गंगाजल है। सब मिट्टी हुआ कि नहीं ? अब जाड़े-पाले में लोगों को नहाना-धोना पड़ेगा कि नहीं? हम कहते हैं तू बड़ा हो गया मिठुआ, मरने के दिन आ गये ; पर तुझे इतनी अक्ल भी नहीं आई। चला है वहाँ से बड़ा भगत की पूँछ बनकर !
समरकान्त ने बिगड़कर पूछा--और भी पहले कभी आया था कि आज ही आया है?
मिठुआ बोला--रोज आते हैं महाराज, यहीं दरवाजे पर बैठकर भगवान की कथा सुनते हैं।
ब्रह्मचारी जी ने माथा पीट लिया। ये दुष्ट रोज यहाँ आते थे ! रोज सबको छूते थे। इनका छुआ हुआ प्रसाद लोग रोज़ खाते थे। इससे बढ़कर अनर्थ क्या हो सकता है ? धर्म पर इससे बड़ा आघात और क्या हो सकता है? धर्मात्माओं के क्रोध का पारावार न रहा। कई आदमी जूते ले-लेकर
कर्मभूमि | २०१ |