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उन गरीबों पर पिल पड़े। भगवान के मन्दिर में, भगवान के भक्तों के हाथों, भगवान के भक्तों पर पादुका-प्रहार होने लगा।

डाक्टर शांतिकुमार और उनके अध्यापक खड़े ज़रा देर तक यह तमाशा देखते रहे। जब जूते चलने लगे तो स्वामी आत्मानन्द अपना मोटा सोटा लेकर ब्रह्मचारी की तरफ़ लपके।

डाक्टर साहब ने देखा, घोर अनर्थ हुआ चाहता है। झपटकर आत्मानन्द के हाथों से सोटा छीन लिया।

आत्मानन्द ने खून-भरी आँखों से देखकर कहा--आप यह दृश्य देख सकते हैं। मैं नहीं देख सकता।

शांतिकुमार ने उन्हें शांत किया और ऊँची आवाज से बोले--वाह रे ईश्वर-भक्तों ! वाह ! क्या कहना है तुम्हारी भक्ति का ! जो जितने जूते मारेगा, भगवान उस पर उतने प्रसन्न होंगे। उसे चारो पदार्थ मिल जायेंगे। सोवे स्वर्ग से विमान आ जायगा। मगर अब चाहे जितना मारो, धर्म तो नष्ट हो गया।

ब्रह्मचारी, लाला समरकान्त, सेठ धनीराम और अन्य धर्म के ठेकेदारों ने चकित होकर शांतिकुमार की ओर देखा। जूते चलने बन्द हो गये।

शांतिकुमार इस समय कुरता और धोती पहने, माथे पर चन्दन लगाये, गले में चादर डाले व्यास के छोटे भाई से लग रहे थे। यह उनका वह फैशन न था, जिस पर विधर्मी होने का आक्षेप किया जा सकता था।

डाक्टर साहब ने फिर ललकार कर कहा--आप लोगों ने हाथ क्यों बन्द कर लिये ? लगाइए कस-कसकर। और जूतों से क्या होता है, बन्दूकें मँगाइए और विद्रोहियों का अन्त कर डालिये। सरकार कुछ नहीं कर सकती। और तुम धर्म-द्रोहियों, तुम सब-के-सब बैठ जाओ और जितने जूते खा सको, खाओ। तुम्हें इतनी खबर नहीं कि यहाँ सेठ महाजनों के भगवान रहते हैं! तुम्हारी इतनी मजाल कि इन भगवान के मन्दिर में कदम रखा! तुम्हारे भगवान कहीं किसी झोपड़े या पेड़ तले होंगे। यह भगवान रत्नों के आभूषण पहनते हैं, मोहन भोग, मलाई खाते हैं। चीथड़े पहननेवालों और चबेना खानेवालों की सूरत वह नहीं देखना चाहते!

ब्रह्मचारीजी परशुराम की भाँति विकराल रूप दिखाकर बोले--तुम

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