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तो बाबूजी अन्घेर करते हो। सासतर में कहाँ लिखा है कि अन्त्यजों को मन्दिर में आने दिया जाय।

शांतिकुमार ने आवेश में कहा--कहीं नहीं। शास्त्र में यह लिखा है कि घी में चरबी मिलाकर बेचो, टेनी मारो, रिश्वतें खाओ, आँखों में धूल झोंको और जो तुमसे बलवान् हैं, उनके चरण धो-धोकर पियो, चाहे वह शास्त्र को पैरों से ठुकराते हों। तुम्हारे शास्त्र में यह लिखा है, तो यह करो। हमारे शास्त्र में तो यह लिखा है कि भगवान् की दृष्टि में न कोई छोटा है, न बड़ा, न कोई शुद्ध और न कोई अशुद्ध। उनकी गोद सबके लिए खुली हुई है।

समरकान्त ने कई आदमियों को अन्त्यजों का पक्ष लेने के लिए तैयार देखकर उन्हें शांत करने की चेष्टा करते हुए कहा--डाक्टर साहब, तुम व्यर्थ इतना क्रोध कर रहे हो। शास्त्र में क्या लिखा है, क्या नहीं लिखा है, यह तो पंडित ही जानते हैं। हम तो जैसी प्रथा देखते हैं, वह करते हैं। इन पाजियों को सोचना चाहिए था या नहीं? इन्हें तो यहाँ का हाल मालूम है, कहीं बाहर से तो नहीं आये हैं ?

शांतिकूमार का खून खौल रहा था--आप लोगों ने जूते क्यों मारे ?

ब्रह्मचारी ने उजड्डपन से कहा--और क्या पान-फूल लेकर पूजते ?

शांतिकुमार उत्तेजित होकर बोले--अन्धे भक्तों की आँखो में धूल झोंककर यह हलवे बहुत दिन खाने को न मिलेंगे महाराज, समझ गये ? अब वह समय आ रहा है, जब भगवान् भी पानी से स्नान करेंगे, दूध से नहीं।


सब लोग हाँ-हाँ करते ही रहे पर शांतिकुमार, आत्मानन्द और सेवा-पाठशाला के छात्र उठकर चल दिये। भजन-मंडली का मुखिया सेवाश्रम का ब्रजनाथ था। वह भी उनके साथ ही चला गया।

उस दिन फिर कथा न हई। कुछ लोगों ने ब्रह्मचारी ही पर आक्षेप करना शुरू किया। बैठे तो थे बेचारे एक कोने में, उन्हें उठाने की जरूरत ही क्या थी। और उठाया भी, तो नम्रता से उठाते। मार पीट से क्या फ़ायदा ?

दूसरे दिन नियत समय पर कथा शुरू हुई; पर श्रोताओं की संख्या बहुत

कर्मभूमि
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