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हाथों लिया, तो उसकी आत्मा जैसे मुग्ध होकर उनके चरणो पर लोटने लगी। अमरकान्त से उनका बखान कितनी ही बार सुन चुकी थी। इस समय उनके प्रति उसके मन में ऐसी श्रद्धा उठी कि जाकर उनसे कहे--तुम धर्म के सच्चे देवता हो, तुम्हें नमस्कार करती हूँ। अपने आसपास के आदमियों को क्रोधित देख-देख कर उसे भय हो रहा था कि कहीं यह लोग उन पर टूट न पड़ें। उसके जी में आता था, जाकर डाक्टर के पास खड़ी हो जाय और उनकी रक्षा करे। जब वह बहुत-से आदमियों के साथ चले गये, तो उसका चित्त शान्त हो गया। वह भी सुखदा के साथ घर चली आयी।

सुखदा ने रास्ते में कहा--ये दुष्ट आज न-जाने कहाँ से फट पड़े। उस पर डाक्टर साहब उल्टे उन्हीं का पक्ष लेकर लड़ने को तैयार हो गये।

नैना ने कहा--भगवान ने तो किसी को ऊँचा और किसी को नीचा नहीं बनाया।

'भगवान ने नहीं बनाया तो किसने बनाया?'

'अन्याय ने।'

'छोटे बड़े संसार में सदा रहे हैं और सदा रहेंगे।'

नैना ने वाद-विवाद करना उचित न समझा।

दूसरे दिन संध्या समय उसे खबर मिली कि आज नौजवान सभा में अछूतों के लिए अलग कथा होगी, तो उसका मन वहां जाने के लिए लालायित हो उठा। वह मन्दिर में सुखदा के साथ तो गयी; पर उसका जी उचाट हो रहा था। जब सुखदा झपकियाँ लेने लगी--आज यह कृत्य शीघ्र ही होने लगा--तो वह चुपके से बाहर आई और तांगे पर बैठकर नौजवान-सभा चली। वह दूर से जमाव देखकर लौट आना चाहती थी, जिसमें सुखदा को उसके आने की खबर न हो। उसे दूर से गैस की रोशनी दिखाई दी। जरा और आगे बढ़ी, तो ब्रजनाथ की स्वर-लहरियां कानों में आई। ताँगा उस स्थान पर पहुँचा, तो शांतिकुमार मंच पर आ गये थे। आदमियों का एक समुद्र उमड़ा हुआ था और डाक्टर साहब की प्रतिभा उस समुद्र के ऊपर किसी विशाल व्यापक आत्मा की भाँति छाई हुई थी। नैना कुछ देर तो ताँगे पर मन्त्र-मुग्ध-सी बैठी सुनती रही, फिर उतरकर पिछली कतार में सबके पीछे खड़ी हो गई।

कर्मभूमि
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