आशय तो यही हो सकता है कि मैं भी किसी पाठशाला में नौकरी करूँ या सीने-पिरोने का धंधा उठाऊँ।
अमरकान्त ने संकट में पड़कर कहा--तुम्हारे लिए इसकी जरूरत नहीं।
'क्यों ? मैं खाती-पहनती हूँ, गहने बनवाती हूँ, पुस्तकें लेती हूँ, पत्रिकाएँ मँगवाती हूँ, दूसरों ही की कमाई पर तो? इसका तो यह आशय भी हो सकता है कि मुझे तुम्हारी कमाई पर भी कोई अधिकार नहीं। मुझे खुद परिश्रम करके कमाना चाहिए।'
अमरकान्त को संकट से निकलने की एक युक्ति सूझ गयी--अगर दादा या तुम्हारी अम्माँजी तुमसे चिढ़े और मैं भी ताने दूं, तब निस्संदेह तुम्हें खुद धन कमाने की जरूरत पड़ेगी।
कोई मुँह से न कहे पर मन में तो समझ सकता है। अब तक तो मैं समझती थी, तुम पर मेरा अधिकार है। तुमसे जितना चाहूँगी लड़कर ले लूगी ; लेकिन अब मालूम हुआ, मेरा कोई अधिकार नहीं। तुम जब चाहो, मुझे जवाब दे सकते हो। यही बात है या कुछ और ?'
अमरकान्त ने हारकर कहा--तो तुम मुझे क्या करने को कहती हो ? दादा से हर महीने रुपये के लिये लड़ता रहूँ ?
सुखदा बोली--हाँ, मैं यही चाहती हूँ। यह दूसरों की चाकरी छोड़ दो और घर का धंधा देखो। जितना समय उधर देते हो, उतना ही समय घर के कामों में दो।
'मुझे इस लेन-देन, सूद-व्याज से घृणा है
सुखदा मुस्कराकर बोली--यह तो तम्हारा अच्छा तर्क है। मरीज़ को छोड़ दो, वह आप-ही-आप अच्छा हो जायेगा ! इस तरह मरीज मर जायगा, अच्छा न होगा। तुम द कान पर जितनी देर बैठोगे, कम से कम उतनी देर तो यह घृणित व्यापार न होने दोगे! यह भी तो सम्भव है, कि तुम्हारा अनुराग देखकर सारा काम तुन्हीं को सौंप दें। तब तुम अपने इच्छानुसार इसे चलाना। अगर अभी इतना भार नहीं लेना चाहते तो न लो; लेकिन लालाजी की मनोवृत्ति पर तो कुछ-न-कुछ प्रभाव डाल ही सकते हो।खह वही कर रहे हैं, जो अपने-अपने ढंग से सारा संसार कर रहा है। तुम विरक्त होकर उनके विचार और नीति को नहीं बदल सकते। अगर तुम अपना ही