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चीज़ों का क्यों व्यवहार होता है ? विचारों में विकास होता ही रहता है, उसे आप नहीं रोक सकते।

समरकान्त ने व्यंग से कहा--इसीलिए तुम्हारे विचार में यह विकास हुआ है कि ठाकुरजी की भक्ति छोड़कर उनके द्रोही बन बैठे ?

शांतिकुमार ने प्रतिवाद किया--ठाकुरजी का द्रोही मैं नहीं हूँ, द्रोही वह हैं, जो उनके भक्तों को उनकी पूजा नहीं करने देते। क्या यह लोग हिन्दू संस्कारों को नहीं मानते ! फिर आपने मंदिर का द्वार क्यों बन्द कर रखा है ?

ब्रह्मचारी ने आँखें निकालकर कहा--जो लोग मांस-मदिरा खाते हैं, निषिद्ध कर्म करते हैं, उन्हें मंदिर में नहीं आने दिया जा सकता।

शांतिकुमार ने शांत भाव से जवाब दिया--मांस-मदिरा तो बहुत से ब्राह्मण, क्षत्री, वैश्य भी खाते हैं, आप उन्हें क्यों नहीं रोकते ? भंग तो प्राय: सभी पीते हैं। फिर वे क्यों यहां आचार्य और पुजारी बने हुए हैं ?

समरकान्त ने डंडा सँभालकर कहा--यह सब यों न मानेंगे। इन्हें डंडों से भगाना पड़ेगा। जरा जाकर थाने में इत्तला कर दो कि यह लोग फ़ौजदारी करने आये हैं।

इस वक्त तक बहुत से पंडे-पुजारी जमा हो गये थे। सब के सब लाठियों के कुन्दों से भीड़ हटाने लगे। लोगों में भगदड़ पड़ गयी। कोई पूरब भागा कोई पच्छिम। शांतिकुमार के सिर पर भी एक डंडा पड़ा पर वह अपनी जगह पर खड़े आदमियों को समझाते रहे--भागो मत, भागो मत, सब-के-सब वहां बैठ जाओ, ठाकुरजी के नाम पर अपने को बलिदान कर दो, धर्म के लिए...

पर दूसरी लाठी सिर पर इतने जोर से पड़ी कि पूरी बात भी मुंह से न निकल पायी और वह गिर पड़े। सँभलकर फिर उठना चाहते थे कि ताबड़तोड़ कई लाठियाँ पड़ गयीं। यहाँ तक कि वह बेहोश हो गये।


नैना बार बार द्वार पर आती है और समरकान्त को बैठे देखकर लौट जाती है। आठ बज गये और लालाजी अभी तक गंगा स्नान करने नहीं

कर्मभूमि
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