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गये। नैना रात भर करवटें बदलती रही। उस भीषण घटना के बाद क्या वह सो सकती थी? उसने शांतिकुमार को चोट खाकर गिरते देखा था और निर्जीव-सी खड़ी थी। अमर ने उसे प्रारम्भिक चिकित्सा की मोटी-मोटी बातें सिखा दी थीं; पर वह उस अवसर पर कुछ भी तो न कर सकी। वह देख रही थी कि आदमियों की भीड़ ने उन्हें घेर लिया है। फिर उसने देखा कि डाक्टर आया और शांतिकुमार को एक डोली पर लेटा कर ले गया; पर वह अपनी जगह से नहीं हिली। उसका मन किसी बँधुए पशु की भाँति बार-बार भागना चाहता था; पर वह रस्सी को दोनों हाथ से पकड़े हुए पूरे बल के साथ उसे रोक रही थी। कारण क्या था? संकोच।

आखिर उसने कलजा मजबूत किया और द्वार से निकलकर बरामदे में आ गयी।

समरकान्त ने पुछा--कहाँ जाती है?

'जरा मन्दिर तक जाती हूँ।'

'वहाँ का तो रास्ता ही बन्द है। जाने कहाँ के चमार-सियार आकर द्वार पर बैठे हैं। किसी को जाने ही नहीं देते। पुलिस खड़ी उन्हें हटाने का यत्न कर रही है, पर अभागे कुछ सुनते ही नहीं। यह सब इसी शांतिकुमार का पाजीपन है। आज वही इन लोगों का नेता बना हुआ है। विलायत जाकर धर्म तो खो ही आया था, अब यहाँ हिन्दू-धर्म की जड़ खोद रहा है। न कोई आचार न कोई विचार, उसी शोहदे सलीम के साथ खाता-पीता है। ऐसे धर्म-द्रोहियों को और क्या सूझेगी। इन्हीं सभों की सोहबत ने अमर को चौपट किया; इसे न जाने किसने अध्यापक बना दिया।

नैना ने दूर से ही यह दृश्य देखकर लौट आने का बहाना किया और मन्दिर की ओर चली। फिर कुछ दूर के बाद एक गली में होकर अस्पताल की ओर चल पड़ी। दाहिने-बायें चौकन्नी आँखों से ताकती हुई वह तेजी से चली जा रही थी, मानो चोरी करने जा रही हो।

अस्पताल में पहुँची तो देखा, हजारों आदमियों की भीड़ लगी हुई है, और युनिवर्सिटी के लड़के इधर-उधर दौड़ रहे हैं। सलीम भी नजर आया। वह उसे देखकर पीछे लौटना चाहती थी कि ब्रजनाथ मिल गया--अरे नैना देवी! तुम यहाँ कहाँ? डाक्टर साहब को रात भर होश

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