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पृष्ठ:कर्मभूमि.pdf/२१७

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मर जाने से कोई हानि न होगी। भाइयो, बहनो, भागो मत; तुम्हारे प्राणों का बलिदान पाकर ही ठाकुरजी तुमसे प्रसन्न होंगे।

कायरता की भाँति वीरता भी संक्रामक होती है। एक क्षण में उड़ते हए पत्तों की तरह भागनेवाले आदमियों की एक दीवार-सी खड़ी हो गयी। अब डण्डे पड़े या गोलियों की वर्षा हो, उन्हें भय नहीं।

बन्दूकों से धाँय ! धाँय ! की आवाजें निकलीं। एक गोली सुखदा के कानों के पास से सन से निकल गयी। तीन-चार आदमी गिर पड़े; पर दीवार ज्यों-की-त्यों अचल खड़ी थी।

फिर बन्दूकें छूटीं। चार-पाँच आदमी फिर गिरे; लेकिन दीवार न हिली।

सुखदा उसे थामे हुए थी। एक ज्योति सारे घर को प्रकाश से भर देती है। बलवान हृदय उसी दीपक की भाँति समूह में साहस भर देता है।

भीषण दृश्य था। लोग अपने प्यारों को आंखों के सामने तड़पते देखते थे; पर किसी की आंखों में आंसू की बूंद न थी। उनमें इतना साहस कहाँ से आ गया था ? फौजें क्या हमेशा मैदान में डटी ही रहती हैं ? वही सेना जो एक दिन प्राणों की बाजी खेलती है दूसरे दिन बन्दूक की पहली आवाज पर मैदान से भाग खड़ी होती है। पर यह किराये के सिपाहियों का हाल है, जिनमें सत्य और न्याय का बल नहीं होता, जो केवल पेट के लिए या लूट के लिए लड़ते हैं। इस समूह में सत्य और धर्म का बल आ गया था। हरेक स्त्री और पुरुष, चाहे वह कितना ही मूर्ख क्यों न हो, समझने लगा था कि हम अपने धर्म और हक के लिये लड़ रहे हैं और धर्म के लिये प्राण देना अछूत-नीति में भी उतने ही गौरव की बात है, जितनी द्विज-नीति में।

मगर यह क्या? पुलिस के जबान क्यों संगीनें उतार रहे हैं? बन्दूकें क्यों कन्धों पर रख लीं? अरे! सब-के-सब तो पीछे की तरफ़ घूम गये। उनकी चार-चार कतारें बन रही हैं। मार्च का हुक्म मिलता है। सब-के-सब मन्दिर की तरफ लौटे जा रहे हैं। एक कांस्टेबल भी नहीं रहा। केवल लाला समरकान्त पुलिस सुपरिन्टेन्डेन्ट से कुछ बातें कर रहे हैं, और जनसमूह उसी भाँति सुखदा के पीछे निश्चल खड़ा है। एक क्षण में सुपरिन्टेन्डेन्ट

कर्मभूमि २१३