भी चला जाता है। फिर लाला समरकान्त सुखदा के समीप आकर ऊंचे स्वर में बोलते हैं--
मन्दिर खुल गया है। जिसका जी चाहे दर्शन करने जा सकता है। किसी के लिये रोक-टोक नहीं है।
जन-समूह में हलचल पड़ जाती है। लोग उन्मत्त हो होकर सुखदा के पैरों पर गिरते हैं, और तब मन्दिर की तरफ दौड़ते हैं।
मगर दस मिनट के बाद ही समूह फिर उसी स्थान पर लौट आता है, और लोग अपने प्यारों की लाशों से गले मिलकर रोने लगते हैं। सेवाश्रम के छात्र डोलियां ले-लेकर आ जाते हैं, और आहतों को उठा ले जाते हैं। वीरगति पानेवालों के क्रिया-कर्म का आयोजन होने लगता है। बजाजों की दुकानों से कपड़े के थान आ जाते हैं, कहीं से बांस, कहीं से रस्सियां, कहीं से घी, कहीं से लकड़ी। विजेताओं ने धर्म ही पर विजय नहीं पायी है, हृदय पर भी विजय पायी है। सारा नगर उनका सम्मान करने के लिये उतावला हो उठा है।
सन्ध्या समय इन धर्म-विजेताओं की अर्थियां निकलीं। सारा शहर फट पड़ा। जनाजे पहले मन्दिर-द्वार पर गये। मन्दिर के दोनों द्वार खुले हुए थे। पुजारी और ब्रह्मचारी किसी का पता न था। सुखदा ने मन्दिर से तुलसीदल लाकर अर्थियों पर रखा और मरनेवालों के मुख में चरणामृत डाला। इन्हीं द्वारों को खुलवाने के लिये यह भीषण संग्राम हुआ। अब वह द्वार खुला हुआ है, वीरों का स्वागत करने के लिये हाथ फैलाये हुए है; पर ये रूठनेवाले अब द्वार की ओर आंख उठाकर भी नहीं देखते। कैसे विचित्र विजेता है! जिस वस्तु के लिये प्राण दिये, उसी से इतना विराग!
ज़रा देर के बाद अर्थियां नदी की ओर चलीं। वही हिन्दू-समाज जो एक घंटा पहले इन अछूतों से घृणा करता था, इस समय उन अर्थियों पर फूलों की वर्षा कर रहा था। बलिदान में कितनी शक्ति है!
और सुखदा? वह तो विजय की देवी थी। पग-पग पर उसके नाम की जय जयकार होती थी। कहीं फूलों की वर्षा होती थी, कहीं मेवों की, कहीं रुपयों की। घड़ी भर पहले वह नगर में नगण्य थी इस समय वह नगर की रानी थी। इतना यश विरले ही पाते हैं। उसे इस समय वास्तव में दोनों
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