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कुछ किया, वह एक प्रबल आवेश में किया। उसका फल क्या होगा, इसकी उसे ज़रा भी चिन्ता न थी। ऐसे अवसरों पर हानि लाभ का विचार मन को दुर्बल बना देता है। आज वह जो कुछ कर रही थी, उसमें उसके मन का अनुराग था, सद्भाव था। उसे अब अपनी शक्ति और क्षमता का ज्ञान हो गया है, वह नशा हो गया है, जो अपनी सुध-बुध भूलकर सेवा-रत हो जाता है, जैसे अपनी आत्मा को पा गयी है।

अब सुखदा नगर की नेत्री है। नगर में जाति-हित के लिए जो काम होता है, सुखदा के हाथों उसका श्रीगणेश होता है। कोई उत्सव हो, कोई परमार्थ का काम हो, कोई राष्ट्र का आन्दोलन हो, सुखदा का उसमें प्रमुख भाग होता है। उसका जी चाहे या न चाहे, भक्त लोग उसे खींच ले जाते हैं। उसकी उपस्थिति किसी जलसे की सफलता की कुंजी है। आश्चर्य यह है कि वह बोलने भी लगी है और उसके भाषण में चाहे भाषा-चातुर्य न हो पर सच्चे उद्गार अवश्य होते हैं। शहर में कई सार्वजनिक संस्थाएँ हैं, कुछ सामाजिक, कुछ राजनैतिक, कुछ धार्मिक, सभी निर्जीव-सी पड़ी थीं। सुखदा के आते ही उनमें स्फूर्ति-सी आ गई है। मादक-वस्तु बहिष्कारसभा बरसों से बेजान पड़ी थी। न कुछ प्रचार होता था, न कोई संगठन। उसका मंत्री एक दिन सुखदा को खींच ले गया। दूसरे दिन ही उस सभा की एक भजन मण्डली बन गई, कई उपदेशक निकल आये, कई महिलाएं घर-घर प्रचार करने के लिए तैयार हो गयीं और मुहल्ले-मुहल्ले पंचायत बनने लगीं। एक नये जीवन की सष्टि हो गयी।

अब सुखदा को ग़रीबों की दुर्दशा का यथार्थ रूप देखने के अवसर मिलने लगे। अब तक इस विषय में उसे जो कुछ ज्ञान था, वह सुनी-सुनाई बातों पर आधारित था। आँखों से देखकर उसे ज्ञान हुआ, देखने और सुनने में बड़ा अन्तर हैं। शहर की उन अंधेरी, तंग गलियों में, जहाँ वायु और प्रकाश का कभी गुज़र ही न होता था, जहाँ की ज़मीन ही नहीं, दीवारें भी मिली रहती थीं, जहाँ दुर्गन्ध के मारे नाक फटती थी, भारत की कम कमाऊ सन्तान रोग और दरिद्रता के पैरों-तले दबी हई अपने क्षीण जीवन को मृत्यु के हाथों से छीनने में प्राण दे रही थी। उसे अब मालूम हआ कि अमरकान्त को धन और विलास से जो विरोध था, वह कितना

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