छोड़ क्यों नहीं देती; बच्चों को गमलों के पौधे बनाने की ज़रूरत नहीं, जिन्हें लू का एक झोंका भी सुखा सकता है। इन्हें तो जंगल के वृक्ष बनाना चाहिये, जो धूप और वर्षा, ओले और पाले किसी की परवाह नहीं करते।
नैना ने मुस्कराकर कहा--शुरू से तो इस तरह रखा नहीं, अब बेचारे की साँसत करने चली हो? कहीं ठण्ड-वण्ड लग जाय, तो लेने के देने पड़ें।
'अच्छा भई, जैसे चाहो रखो, मुझे क्या करना है।'
'क्यों, इसे अपने साथ उस छोटे-से घर में न रखोगी?'
'जिसका लड़का है, वह जैसे चाहे रखे। मैं कौन होती हूँ !'
'अगर भैया के सामने तुम इस तरह रहतीं, तो तुम्हारे चरण धो-धोकर पीते।'
सुखदा ने अभिमान के स्वर में कहा--मैं तो जो तब थी, वही अब भी हूँ। जब दादाजी से बिगड़कर उन्होंने अलग घर ले लिया था, तो क्या मैंने उनका साथ न दिया था? वह मुझे विलासिनी समझते थे; पर मैं कभी विलास की लौंडी नहीं रही। हाँ, दादाजी को रुष्ट नहीं करना चाहती थी। यही बुराई मुझमें थी। मैं अब भी अलग रहूँगी, तो उनकी आज्ञा से। तुम देख लेना, मैं इस ढंग से यह प्रश्न उठाऊँगी कि वह बिलकुल आपत्ति न करेंगे। चलो, ज़रा डाक्टर शांतिकुमार को देख आवें। मुझे तो इधर जाने का अवकाश ही नहीं मिला।
नैना प्रायः एक बार रोज़ शांतिकुमार को देख आती थी; हाँ सुखदा से कुछ कहती न थी। वह अब उठने-बैठने लगे थे; पर अभी इतने दुर्बल थे कि लाठी के सहारे बगैर एक पग भी न चल सकते थे। चोटें उन्होंने खाई--छ: महीने से शय्या-सेवन कर रहे थे और यश सुखदा ने लूटा। यह दुःख उन्हें और घुलाये डालता था। यद्यपि उन्होंने अंतरंग मित्रों से भी कभी अपनी मनोव्यथा नहीं कही; पर यह कांटा खटकता अवश्य था। अगर सुखदा स्त्री न होती और वह भी प्रिय शिष्य और मित्र की, तो कदाचित् वह शहर छोड़कर भाग जाते। सबसे बड़ा अनर्थ यह था कि इन छ: महीनों में सुखदा दो-तीन बार से ज्यादा उन्हें देखने न गयी थी। वह भी अमरकांत के मित्र थे और इस नाते सुखदा को उन पर विशेष श्रद्धा न थी।
नैना को सुखदा के साथ जाने में कोई आपत्ति न हुई। रेणुकाबाई
२१८ | कर्मभूमि |