ने कुछ दिनों से मोटर रख लिया था; पर वह रहता था सुखदा ही की सवारी में। दोनों उस पर बैठकर चलीं। लल्लू भला क्यों अकेले रहने लगा था। नैना ने उसे भी ले लिया।
सुखदा ने कुछ दूर जाने के बाद कहा--यह सब अमीरों के चोंचले हैं। मैं चाहूँ तो दो-तीन आने में अपना निर्वाह कर सकती हूँ।
नैना ने विनीत-भाव से कहा--पहले करके दिखा दो, तो मुझे विश्वास आये। मैं तो नहीं कर सकती।
'जब तक इस घर में रहूँगी, मैं भी न कर सकूँगी। इसीलिए तो मैं अलग रहना चाहती हूँ।'
'लेकिन साथ तो किसी को रखना ही पड़ेगा?'
'मैं कोई ज़रूरत नहीं समझती। इसी शहर में हजारों औरतें अकेली रहती हैं। फिर मेरे लिए क्या मुश्किल है। मेरी रक्षा करनेवाले बहुत हैं। मैं खुद अपनी रक्षा कर सकती हूँ। (मुसकराकर) हाँ, खुद किसी पर मरने लगूँ तो दूसरी बात है।'
शांतिकुमार सिर से पाँव तक कंबल लपेटे, अँगीठी जलाये, कुरसी पर बैठे एक स्वास्थ्य सम्बन्धी पुस्तक पढ़ रहे थे। वह कैसे जल्द-से-जल्द भले-चंगे हो जायँ, आज-कल उन्हें यही चिन्ता रहती थी। दोनों रमणियों के आने का समाचार पाते ही किताब रख दी और कम्बल उतार कर रख दिया। अँगीठी भी हटाना चाहते थे; पर इसका अवसर न मिला। दोनों ज्योंही कमरे में आईं, उन्हें प्रणाम करके कुरसियों पर बैठने का इशारा करते हुए बोले--मुझे आप लोगों पर ईर्ष्या हो रही है। आप इस शीत में घूम-फिर रही हैं और मैं अँगीठी जलाये पड़ा हूँ। करूँ क्या, उठा ही नहीं जाता। जिन्दगी के छ: महीने मानो कट गये, बल्कि आधी उम्र कहिये। मैं अच्छा होकर भी आधा ही रहूँगा। कितनी लज्जा आती है कि देवियां बाहर निकलकर काम करें और मैं कोठरी में बन्द पड़ा रहूँ।
सुखदा ने जैसे आँसू पोंछते हुए कहा--आपने इस नगर में जितनी जागृति फैला दी, उस हिसाब से तो आपकी उम्र चौगुनी हो गयी। मुझे तो बैठे-बैठाये यश मिल गया।
शांतिकुमार के पीले मुख पर आत्मगौरव की आभा झलक पड़ी।
कर्मभूमि | २१९ |