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को कितने अतुल आनन्द से वंचित कर रखा है, इसका अनुमान करके वह जैसे दब गये। आज उन्हें स्वयं अपने जीवन में एक अभाव का, एक रिक्तता का आभास हुआ। जिन कामनाओं का वह अपने विचार में संपूर्णत: दमन कर चुके थे, वह राख में छिपी हुई चिनगारियों की भाँति सजीव हो गयीं।

लल्लू ने हाथों की स्याही शांतिकुमार के मुख में पोतकर नीचे उतरने के लिए आग्रह किया, मानो इसीलिए वह उनकी गोद में गया था। नैना ने हँसकर कहा--जरा अपना मुंह तो देखिए डाक्टर साहब ! इस महान् पुरुष ने आपके साथ होली खेल डाली ! बड़ा बदमाश है।

सुखदा हसी रोक न सकी। शांतिकुमार ने शीशे में मुंह देखा, तो वह भी ज़ोर से हँसे। वह कलंक का टीका उन्हें इस समय यश के तिलक से भी कहीं उल्लास-मय जान पड़ा।

सहसा सुखदा ने पूछा--आपने शादी क्यों नहीं की डाक्टर साहब?

शांतिकुमार सेवा और व्रत का जो आधार बनाकर अपने जीवन का निर्माण कर रहे थे, वह इस शय्या-सेवन के दिनों में कुछ नीचे खिसकता हुआ जान पड़ रहा था। जिसे उन्होंने जीवन का मुल सत्य समझा था, वह अब उतना दृढ़ न रह गया था। इस आपत्काल में ऐसे कितने ही अवसर आये, जब उन्हें अपना जीवन भार-सा मालूम हुआ। तीमारदारों की कमी न थी। आठों पहर दो-चार आदमी घेरे ही रहते थे। नगर के बड़े-बड़े नेताओं का आना-जाना भी बराबर होता रहता था; पर शांतिकुमार को ऐसा जान पड़ता था कि वह दूसरों की दया-शिष्टता पर बोझ हो रहे हैं। इन सेवाओं में वह माधुर्य, वह कोमलता न थी, जिससे आत्मा की तृप्ति होती। भिक्षुक को क्या अधिकार है कि वह किसी के दान का निरादर करे। दानस्वरूप उसे जो कुछ मिल जाय, वह सभी स्वीकार करना होगा। इन दिनों उन्हें कितनी ही बार अपनी माता की याद आयी थी। वह स्नेह कितना दुर्लभ था! नैना जो एक क्षण के लिए उनका हाल पूछने आ जाती थी, उसमें उन्हें न जाने क्यों एक प्रकार की स्फूर्ति का अनुभव होता था। वह जब तक रहती थी, उनकी व्यथा जाने कहाँ छिप जाती थी। उसके जाते ही फिर वहीं कराहना, वहीं बेचैनी ! उनकी

कर्मभूमि
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