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अमर जैसा विनय और त्याग मुझमें नहीं है, और तुम जैसी उदार और ...।'

सुखदा ने बात काटी-मैं उदार नहीं हूँ, न विचारशील हूँ। हाँ, पुरुषः के प्रति अपना धर्म समझती हूँ। आप मुझसे बड़े हैं, और मुझसे कहीं बुद्धिमान है। मैं आपको अपने बड़े भाई के तुल्य समझती हूँ। आज आपका स्नेह और सौजन्य देखकर मेरे चित्त को बड़ी शान्ति मिली। मैं आपसे बेशर्म होकर पूछती हूँ, ऐसे पुरुष को, जो स्त्री के प्रति अपना धर्म न समझे, क्या अधिकार है कि वह स्त्री से व्रत-धारिणी रहने की आशा रखे? आप सत्यवादी है। मैं आपसे पूछती हूँ, यदि मैं उस व्यवहार का बदला उसी व्यवहार से दूँ तो आप मुझे क्षम्य समझेंगे?

शांतिकुमार ने निश्शंक भाव से कहा-नहीं।

'उन्हें आपने क्षम्य समझ लिया?'

'नहीं!'

'और यह समझकर भी आपने उनसे कुछ नहीं कहा ? कमी एक पत्र भी नहीं लिखा ? मैं पूछती हूँ, इस उदासीनता का क्या कारण है ? यही न कि इस अवसर पर एक नारी का अपमान हुआ है। यदि वही कृत्य मुझसे हुआ होता तब भी आप इतने उदासीन रह सकते ? बोलिए।'

शांतिकुमार रो पड़े। नारी-हृदय की संचित व्यथा आज इस भीषण विद्रोह के रूप में प्रकट होकर कितनी करुण हो गई थी।

सुखदा उसी आवेश में बोली-कहते हैं, आदमी की पहचान उसकी संगत से होती है। जिसकी संगत आप और मुहम्मद सलीम और स्वामी आत्मानंद जैसे महानुभावों की हो, वह अपने धर्म को इतना भूल जाय, यह बात मेरी समझ में नहीं आती। मैं यह नहीं कहती कि मैं निर्दोष हूँ। कोई स्त्री यह दावा नहीं कर सकती, और न कोई पुरुष ही यह दावा कर सकता है। मैंने सकीना से मुलाकात की है। संभव है, उसमें वह गुण हों जो मुझमें नहीं हैं। वह ज्यादा मधुर है, उसके स्वभाव में कोमलता है, हो सकता है, वह प्रेम भी अधिक कर सकती हो; लेकिन यदि इसी तरह सभी पुरुष और स्त्रियाँ तुलना करने बैठ जायें तो संसार की क्या गति

कर्मभूमि
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